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द्वितीय उल्लासः
उपाधिश्च द्विविध:- वस्तुधर्मो वक्तृयदृच्छासन्निवेशितश्च । वस्तुधर्मोऽपि द्विविधः— सिद्ध: साध्यश्च । सिद्धोऽपि द्विविध: - पदार्थस्य प्राणप्रदो विशेषाधानहेतुश्च । तत्राद्यो जाति: ।
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पर्यायत्वापत्ती सह प्रयोगो न स्यादित्यर्थः । यद्वा विषयविभागः प्रकारभेदस्तथा च गोपदादिजन्यव्यक्तिबुद्धीनां प्रकारभेदो न स्यादित्यर्थः । वस्तुधर्मः स्वाभाविको वस्तुनो धर्मः, वक्त्रिति वक्तृच्छोपाधिक इत्यर्थः । प्राणप्रद इति । प्राणप्रदत्वं यावद्वस्तुसम्बन्धित्वं, न तु यावद्वस्तुस्थायित्वम्, नीलपीतादीनामपि नित्यत्वेन यावद्वस्तुस्थायित्वात्, तत्सम्बन्धः कदाचिदत्यपि श्यामं रूपं नष्टमित्यादौ समवायनाशस्वीकारात् एतन्मते च न समवायस्यैक्यमिति न पृथिव्यां रूपसमवायनाशे जातिसमवायनाशः, न च लाद्यधिकरणे रूपादेर्यावद्वस्तुसम्बन्धित्वस्यापि सत्त्वादतिव्याप्तिरिति वाच्यं सर्वस्वाश्रये यावद्वस्तुसम्बन्धित्वस्य तत्त्वादिति दिक् विशेषः सजातीयेभ्यो व्यावृत्तिराधानं बुद्धिः, प्राणप्रदत्वमेव व्यवस्था
अथवा विषय-विभाग का अर्थ प्रकार-भेद करना चाहिए; इस तरह व्यक्तिवाद में इन शब्दों में प्रकार - भेद नहीं होगा या तात्पर्य मानना चाहिए । घटः और शुक्लः इन दोनों पदों से उपस्थित पदार्थ की बुद्धि में जाति और गुण विशेषण बनकर घटित होते हैं। इसलिए दोनों बुद्धि में प्रकारभेद है। इसलिए विषय-भेद माना जा सकता है; लेकिन जब पदों का अर्थं "व्यक्ति" ही होगा, तो बुद्धि सर्वत्र व्यक्तिप्रकारक होगी और इस तरह गोपद, शुक्लपद, चलपद और डित्थपदजन्य बोधों में प्रकारभेद नहीं हो सकेगा ।
इसलिए व्यक्ति में शक्ति न मानकर व्यक्ति की उपाधियों में संकेतग्रह मानना चाहिए ।
'उपाधिश्च द्विविधः' इत्यादि (मूल)
उपाधि (मुख्य रूप से) दो प्रकार की होती है ( १ ) वस्तुधर्म (वस्तु का यथार्थ धर्म ) तथा ( २ ) वक्तृ-यश्च्छासन्निवेशित (वक्ता के द्वारा अपनी मर्जी से उस अर्थ में सन्निवेशित) । वस्तुधर्म का अर्थ है वस्तु का स्वाभाविक धर्म और वक्तृच्छासन्निवेशित शब्द में वक्ता की यच्च्छा ( खुद की मर्जी) ही उपाधि होती है। वस्तुधर्म भी दो प्रकार का होता है (१) सिद्ध और (२) साध्य | सिद्धरूप वस्तु धर्म भी दो प्रकार का होता है— एक पदार्थ का प्राणप्रद ( जीवनाधायक) और दूसरा विशेषाधानहेतु (विशेषता का आधान कराने का कारण ) । इनमें पहला अर्थात् वस्तु का प्राणप्रद सिद्ध धर्म जाति होता है। जैसा कि भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' नामक अपने ग्रन्थ में कहा है : गौ स्वरूपतः न गौ होती है और न अगी। वह गोत्वजाति के सम्बन्ध से ही गो कहलाती है। इस तरह वस्तु का प्राणप्रद - जीवनधायक वस्तुधर्म जाति कहलाता है ।
जाति में प्राणप्रदत्व जो माना गया है उसका कारण उसका ( जाति का ) यावद्वस्तुसम्बन्धित्व है । जाति (घटत्वादि) उस प्रकार की जितनी वस्तुएँ (घड़े) हैं; उन सब में समवाय सम्बन्ध से रहती है। इसलिए सकल घट वस्तुसम्बन्धी होने के कारण जाति को पदार्थ का प्राणप्रद माना गया है । यावद्वस्तुस्थायी होना प्राणप्रता नहीं है । यदि जब तक वस्तु है तब तक स्थायी होने के कारण प्राणप्रदता मानें तो नील-पीतादि गुण भी नित्य होने
के कारण यावदुवस्तुस्थायी हैं; इसलिए वे भी पदार्थ के प्राणप्रद माने जायेंगे ।
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यावदुवस्तुसम्बन्धी होना ही पदार्थ की प्राणप्रदता है ऐसा मानने पर कोई दोष नहीं होता; क्योंकि गुणका सम्बन्ध वस्तु के साथ तब तक उपस्थित नहीं रहता है जब तक कि वस्तु है । उसका सम्बन्ध कभी हट भी जाता है । "श्यामं रूपं नष्टम् " यहाँ आम में पुराना श्यामरूप जब नष्ट गया तब उसका श्यामरूप समवाय भी नष्ट