________________
द्वितीय उल्लासः
"गौः शुक्लश्चलो डित्थः' इत्यादौ "चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः” इति महाभाष्यकारः ।
परमाण्वादीनां तु गुणमध्यपाठात् पारिभाषिकं गुणत्वम् ।
प्राञ्चस्तु प्रथमादिवर्णप्रत्यक्षे किञ्चिदभिव्यक्तं चरमवर्णबुद्धया निःशेषतो व्यङ्गचं संहृतक्रम वर्णक्रमशन्यस्वरूपं स्फोट: स एवोपाधिः, स च डित्थादिपदजन्यज्ञाने भासते, घटादिपदे तु जात्यादेरेव प्रकारत्वान्नायं प्रकारः । एवमेव चाकाशपदादावित्यर्थ इति प्राहुः । स्वोक्ते भाष्यसम्मतिमाह “गौः शुक्ल" इति । ननु प्राणप्रदत्वं यावद्वस्तुसम्बन्धित्वं परमाणुत्वादीनामपीति कथमयं गुणशब्द इत्यत आहआकाशत्वप्रकारक-स्मृतित्वेन होती तो उसका बोध होता परन्तु ऐसा नहीं है, इस प्रकार का कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जहाँ द्रव्य होने के कारण द्रव्यप्रकारक आकाश का स्मरण है उस द्रव्यत्वप्रकारक आकाश के स्मरण के प्रति प्रमेय के रूप में आकाशानुभव को जनक मानना आवश्यक हो जायगा, इसलिए प्रत्येक को कार्यकारण भाव नहीं माना जा सकता। साथ ही साथ प्रकारताशून्य आकाश की उपस्थिति (आकाश की निर्विकल्प उपस्थिति) में आकांक्षा-ज्ञान के सम्भव न होने से शाब्दबोध होगा ही नहीं। 'प्राञ्चस्तु' इत्यादि (टीकार्थ)
प्राचीन आचार्यों का मत यदृच्छाशब्द के सम्बन्ध में इस प्रकार है। डित्थादि यदृच्छाशब्द में प्रथम, द्वितीय आदि वर्ण का प्रत्यक्ष (श्रवण) होने पर कुछ अभिव्यक्ति, और अन्तिम वर्ण का ज्ञान होने पर पूर्ण रूप में व्यङ्ग्य संहृतकम अर्थात् वर्णक्रम-शून्यात्मक स्फोट ही उपाधि है। उस स्फोटरूप उपाधि की डित्थादि पदजन्य ज्ञान होने पर प्रतीति होती है । घटादि पद में तो जात्यादि ही प्रकार (बनकर प्रतीत होता) है, इसलिए डित्यादि शब्दों की तरह संकेतग्रह की रीति नहीं अपनायी गयी। इसी प्रकार आकाशादि पदों में भी समझना चाहिए।
अपने कथन में महाभाष्यकार पतञ्जलि की सम्मति बताते हुए (मम्मट) कहते हैं 'गौः शुक्लश्चलो डित्य' इत्यादि में शब्द की चार प्रकार की प्रवृत्ति को महाभाष्यकार ने भी स्वीकार किया है।
प्राणप्रदत्व का अर्थ आपने यावद्वस्तुसम्बन्धित्व किया है अर्थात जिसका सन्बन्ध वस्तु के साथ तब तक रहें जब तक कि वस्तु मौजूद हो, उसको प्राणप्रद कहते हैं, तब तो जाति की तरह परमाणु भी यावद्वस्तुसम्बन्धी है क्योंकि परमाणु का सम्बन्ध (समवाय) वस्तु के साथ तब तक रहता है जब तक कि वस्तु रहती है, इस तरह परमाणु को जाति मानना चाहिए उसे गुणों में क्यों गिना गया? इसी प्रश्न को मन में रख कर उत्तर देते हए ग्रन्थकार लिखते हैं कि-परम अणु (परिमाण तथा आदि शब्द से परममहत्परिमाण) आदि का (उनके प्राणप्रद-धर्म होने के कारण) जाति शब्द मानना उचित होने पर भी 'वैशेषिकदर्शन' में विशेष पारिभाषिक शब्दों की तरह गुणमध्यपाठ के कारण उनमें पारिभाषिक गुणत्व माना गया है।* *परम-अणु-परिमाण की गुणों में गणना कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण इस रूप में प्राप्त होता है
उपर्युक्त विभाजन के अनुसार वस्तु के प्राणप्रद-धर्म का नाम 'जाति' और उसके विशेषाधानहेतु-धर्म को 'गुण' कहा जाना चाहिये । परन्तु 'वैशेषिक दर्शन' में शुक्ल आदि 'रूप' के समान 'परिमाण' को भी गुण माना है। उसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या और परिमाण आदि २४ गुणों में 'परिमाण' की भी गणना की गई है। यह परिमाण मुख्यरूप से १-'अणु' तथा २-'महत्' दो प्रकार का होता है। परन्तु उन दोनों के साथ परमशब्द को जोड़कर उनका एक-एक भेद और हो जाता है । अर्थात् अणु-परिणाम के दो भेद हो गये-एक 'अणुपरिमाण' और दूसरा 'परम-अणपरिमाण' । इसी प्रकार महत-परिमाण के भी एक 'महत-परिमाण' तथा दूसरा 'परम-महत्परिमाण' ऐसे