________________
४०
काव्यप्रकाशा
कानुभवेन पटत्वप्रकारकस्मरणापत्तेः, न च विरुद्धाप्रकारकानुभवत्वं तथा, उभयविषयकानुभवत एकमात्रविषयकस्मरणानापत्तेः, न च विरुद्धमात्राप्रकारकानुभवत्वं तथा', गौरवात्, न च समानप्रकारकत्वादीनाम ननुगमेन घटत्वप्रकारकानुभवत्वेन तत्प्रकारकस्मृतित्वेनेत्यादिना प्रत्येक कार्यकारणभावकल्पनेऽपि प्रकृते आकाशानुभवत्वेन तत्स्मरणत्वेनैव तत्कल्पनमिति वाच्यम्, द्रव्यत्वप्रकारकाकाशस्मरणं प्रति, प्रमेयत्वप्रकारकतदनुभवस्य जनकत्वापत्तेः, निर्विकल्पकोपस्थिताकाशे आकाङ्क्षाज्ञानासम्भवेन शाब्दबोधानापत्तश्चेति दिक् ।
शब्द में शक्ति को माना इसलिए उनके विचार में व्यक्ति और संज्ञा-शब्द में कुछ अन्तर होना चाहिए; वह अन्तर है संज्ञा-शब्द में भी उपाधि का होना । जैसा कि उन्होंने "उपाधि के दो भेद हैं" इत्यादि पंक्ति के द्वारा संज्ञा शब्द में भी उपाधि स्वीकार की है। मम्मट के पूर्वोक्त विचार से विरुद्ध होने के कारण चण्डीदास का मत मानने योग्य नहीं है।
दूसरी बात यह है कि यदि संज्ञाशब्द में कोई उपाधि या प्रकार न मानें, तो संज्ञा पद से निर्विकल्प स्मरण नहीं हो सकेगा क्योंकि स्मरण में समानप्रकारक अनुभव को कारण माना गया है। जैसे राम को देखकर लक्ष्मण का अनुभव इसलिए होता है कि दोनों में दशरथपुत्रत्व आदि समान धर्म है। डित्थ पद से निर्विकल्पात्मक स्मरण हआ करता है । इसलिए कार्य को (स्मरण को) देखकर यहाँ कारण का अनुमान करना पड़ेगा और मानना होगा कि डित्य में कुछ न कुछ उपाधि है।
अनुभव में समान-विषयक अनुभवत्व को ही स्मृतिजनकतावच्छेदक मानेगे। किन्तु समानप्रकारकत्व को भी स्मतिजनकतावच्छेदक नहीं मानेंगे। अर्थात् डित्थ का निर्विकल्पक स्मरण होता है उसका कारण डित्थ में रहने वाली कोई उपाधि नहीं अपितु डिस्थ के अनुभव में जो समानविषयक अनुभवत्व था, वह है, यह स्वीकार करने पर संज्ञाशब्द में उपाधि नहीं मानने पर भी कोई दोष नहीं होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि समान-विषयक अनुभवत्व को स्मरण का कारण मानने पर घट में घटत्वप्रकारक अनुभव से पटत्वप्रकारक स्मरण होने लगेगा। यदि "समानप्रकार के अनुभव' को कारण मानते हैं तो घटत्व प्रकारक अनुभव से घटत्वप्रकारक स्मृति अर्थात् घट की ही स्मृति होगी, पट की नहीं।
यदि यह कहें कि विरुद्धाप्रकारक अनुभव को स्मृति का कारण मानेंगे, तब तो घटत्वप्रकारक अनुभव (घटानुभव) तथा पटत्वप्रकारक स्मृति (पटस्मृति) इन दोनों में प्रकार, घटत्व और पटत्व परस्पर विरुद्ध हैं इसलिए ऐसी स्मृति (घटानुभव) से पटानुभूति नहीं होती है तो यह भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जिस व्यक्ति को घटत्व और पटत्व दोनों प्रकार का अनुभव है अर्थात् जिसे घट और पट दोनों का अनुभव है, जिसे आग और पानी दोनों का परिचय है उसे विरुद्ध प्रकारक अनुभव होने के कारण एक विषय का स्मरण नहीं होगा।
यदि विरुद्ध मात्राप्रकारक अनुभव को स्मृतिजनकतावच्छेदक मानें तो जिस अनुभव में विरुद्ध प्रकार न हो, उससे स्मृति होगी। उभयप्रकारक अनुभव में केवल विरुद्ध ही प्रकार नहीं है, वहाँ तो अनुकूल धर्म भी प्रकार है इसलिए यदि पूर्वोक्त दोष का उद्धार करने का प्रयत्न करें, तो वह भी व्यर्थ होगा।
उभयविषयक अनुभव से एकमात्र विषयक स्मरण नहीं होगा और यदि विरुद्ध मात्राप्रकारक अनुभव को स्मृतिजनकतावच्छेदक माने तो गौरव होगा। समानप्रकारत्व धर्म अनुगतधर्म नहीं है अर्थात् वह धर्म ऐसा नहीं है जिसका निश्चित ज्ञान किया जाय । इसलिए घटबोध के प्रति घटत्वप्रकारक अनुभव और घटत्व स्मृति दोनों में प्रत्येक के कार्यकारणभाव की कल्पना करने पर प्रकृत में दोष नहीं होगा। क्योंकि यहाँ आकाश का स्मरण आकाशानुभवत्वेन नहीं है किन्तु घट-समवायिकारणत्वेन है। यदि आकाश की उपस्थिति आकाशत्वप्रकारकानूभवत्वेन और
१. स्मृतिजनकतावच्छेदकम् ।