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काव्यप्रकाशः
परमाण्वादीनामिति । परमाणुत्वादीनामित्यर्थः, परिमाणमात्रपरं वा परमाणुपदं पारिभाषिकं वैशेषिकादिव्यवस्थासिद्धं तथा चायं जातिशब्द एवेति भावः । ननु गुणानामपि नानात्वे व्यक्तिशक्तिपक्षोक्त एव दोष इत्यत आह-गुणेति । नाशधीस्तु समवायविषयिणी । न चानेकव्यक्तिवृत्तित्वे नित्यत्वे च तस्य जातित्वापत्तिः, जातेः संस्थानमात्रव्यङ्ग्यत्वेनास्यातत्त्वात्', अवयवावयविवृत्तित्वाद् गोत्वादिना परापरभावानुपपत्तेश्चेति । तथाऽधिश्रयणादितत्तद्व्यापारव्यङ्गया तत्तद्व्यापारानुगता क्रियाऽप्येकैव । अत एवैकव्यापाराभावेऽपि पचतीत्यादिप्रयोगप्रत्ययौ, अन्यथाऽऽशुविनाशिनां तेषां मेलकाभावात् तौ न दो भेद हो जाते हैं । उनमें से 'परम- अणु परिमाण' केवल परमाणु-संज्ञक पदार्थ अर्थात् पृथिव्यादि द्रव्यों के सूक्ष्म वृत्ति में यद्यपि "परमाण्वादीनाम्” लिखा हुआ है तथापि उसका अर्थ 'परमाणुत्वादीनाम्' करना चाहिए । अथवा परमाणु स्वीकृत पद को परिमाण बोधक मानना चाहिए। 'पारिभाषिकं गुणत्वम्' का वैशेषिकादि दर्शन की व्यवस्था से सिद्ध गुणत्व माना गया है यह अर्थ है । सही में देखा जाय तो वह जाति शब्द ही है । गुण शब्द आदि में दोषों की शङ्का और उसका निवारण
आगे की पक्ति की अवसर-संगति देते हुए लिखते हैं कि गुण भी अनेक हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थों में शुक्लादि गुण भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं जैसे हिम, दूध और शंख आदि में शुक्लता अलग-अलग है, तब तो गुण में शक्ति मानने पर व्यक्तिवाद की तरह (आनन्त्य और व्यभिचार) दोष होंगे । इसका उत्तर देते हुए वृत्तिकार ने "गुणक्रियायदृच्छानां" इत्यादि पंक्ति लिखी है । इसका अर्थ है कि भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न २ रूप से प्रतीत होनेवाले गुण, क्रिया और च्छा के एकरूप होने पर भी आश्रय-भेद से उनमें भेद-सा प्रतीत होता है ( वह भेद वास्तविक नहीं है किन्तु आश्रय के कारण कल्पित है) जैसे एक ही मुख को, तलवार, दर्पण या तैल में देखने पर प्रतिबिम्बों में भिन्नता दिखाई पड़ती है । यह भेद वास्तविक नहीं है किन्तु उपाधिकृत है इसी प्रकार गुण आदि में प्रतीत होनेवाला भेद भी केवल औपाधिक है । इसलिए गुण आदि में संकेत ग्रह मानने पर 'आनन्त्य' और 'व्यभिचार' दोषों के आने की संभावना नहीं है।
गुण (शुक्लादि ) के एक होने पर भी "अत्र शुक्लो गुणो नष्टः " यह नाशबुद्धि इसलिए उत्पन्न होती है कि द्रव्य 'शुक्ल गुण का जो समवाय था, वह नष्ट हो गया और वहां रक्तादि अन्य गुण का समवाय उत्पन्न गया है ।
में
शुक्लादि गुण को अनेक व्यक्तियों में रहनेवाला तथा नित्य मानने पर "नित्यम् एकम् अनेकानुगतम् सामान्यम्” यह जाति लक्षण वहां संघटित हो जायगा क्योंकि शुक्ल को आपने एक माना ही है, उसे आपने नित्य भी कहा है; क्योंकि गुणनाशबुद्धि को आपने समवायनाशविषयिणी बताया है, अनेक व्यक्ति में विद्यमान होने के कारण उसे अनेकानुगत आपने स्वीकार किया ही है-इस तरह की आशङ्का नहीं करनी चाहिए । जाति संस्थानमात्र व्यङ्ग्य होती है, गुणसंस्थान आकृतिमात्र से व्यङ्ग्य नहीं होता । "तटः तटी तटम् " यह तट जातिवाचक शब्द है क्योंकि तट का एक विशेष - विशेष संस्थान हैं, आकृति है, गीली मिट्टी- रेतीली भूमि आदि संस्थान से वह व्यङ्गय होता है; इस
और अविभाज्य अवयव में रहता है। इस परम अणु- परिमाण' के लिये 'परिमाण्डल्य - परिमाण' शब्द का भी प्रयोग होता है । यह परम अणु-परिमाण 'परमाणु'- रूप सूक्ष्मतम पदार्थ का प्राणप्रद धर्म है, विशेषाधान हेतु नहीं । इसलिये उक्त परिभाषा के अनुसार परम अणु - परिमाण के वाचक 'परमाणु- परिमाण' शब्द को जाति-शब्द मानना चाहिये । परन्तु 'वैशेषिक दर्शन' में उसका पाठ गुणों में किया गया है। इसका क्या कारण है ? यह प्रश्न उपस्थित होता है । इसी प्रश्न का उत्तर ग्रन्थकार ने यह दिया है कि- 'परम-अण - परिमाण' वस्तुतः जातिवाचक शब्द ही है । परन्तु जैसे लोक में अन्य अर्थों में प्रसिद्ध 'गुण', 'वृद्धि' आदि शब्दों का व्याकरण शास्त्र में विशेष अर्थ में प्रयोग होता है, उसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में परम-अण - परिमाण की गणना गुणों में की गयी हैं। १. गुणस्य संस्थानमात्रव्यङ्ग्यत्वाभावात् ।
-सम्पादक