________________
काव्यप्रकाशः
डित्थादिशब्दानामन्त्यबुद्धिनिर्माह्य संहृतक्रमं स्वरूपं वक्त्रा यदृच्छया डित्थादिष्वर्थेवूपाधित्वेन सन्निवेश्यत इति सोऽयं संज्ञारूपो यदृच्छात्मक इति । व्यज्यत इत्यर्थः। तन्मते एकव नित्या क्रिया क्रमवत्तावद्-व्यापारव्यङ्गयेत्यभ्युपगमात्, केचित्तु पूर्वापरीभूतोऽधिश्रयणादिरवयवो जनको यस्या इति विक्लित्यभिप्रायेणेति योजयन्ति। तत्तु गुणक्रियायदृच्छानां वस्तुत एकरूपाणामित्युत्तरग्रन्थविरुद्धम् ।
यदृच्छात्मकमुपाधि व्याचष्टे-डित्थादीनामिति । स्वरूपं वर्णात्मकं, अन्त्या स्वजन्या या विशिष्टबुद्धिः तद्ग्राह्यम्, संज्ञाशब्दा हि स्वस्वप्रत्यक्षानन्तरं स्वस्वविशिष्टान् धर्मिणः प्रत्याययन्ति, नैवं गवादिपदानि, तेषां जात्यादिवैशिष्ट्येन बोधकत्वात् । वैधान्तरमाह संहृतेति। पूर्वपूर्वप्रयोगदर्शनात् परपरप्रयोग इति जात्यादिशब्देषु यः क्रमस्तच्छून्यमित्यर्थः । शब्दस्य तन्मते द्रव्यत्वेन यदृच्छाशब्दे द्रव्यमुपाधिः ।
वस्तुतः साध्य वह है जो पूर्वापरीभूत क्रिया अर्थात् एक देश क्रिया से निरूपित होता है अर्थात् अभिव्यक्त होता है । इस मत में क्रिया एक ही है और नित्य है वह क्रमयुक्त उन-उन (चूल्हा जलाना, फूकना, बर्तन रखना आदि) व्यापारों से व्यङ्गय होती है यह माना जाता है। 'केचित्त' इत्यादि (टीकार्थ)
कोई-"पूर्वापरीभूतावयवः" की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-'पूर्वापरीभूत अधिश्रयण आदि अवयव है जनक जिसका, वह विक्लित्ति (अन्न का सीझना) साध्य है, इस प्रकार इस पंक्ति का अर्थ लगाते हैं। परन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यह व्याख्या काव्य-प्रकाश की वृत्ति में लिखित “गुणक्रियायहच्छानां बस्तुत एकरूपाणाम्" इस ग्रन्थ से मेल नहीं खायेगी। यहां बताया गया है बर्फ, दूध और शंख में 'सफेदी', गुड़ खीर, पायस, और ओदन पाक में 'पाक-क्रिया' और बालक, वृद्ध या युवक डित्य में 'डित्थ' एक है; जो कुछ भेद है, वह आश्रय भेद के कारण है, इसलिए अवास्तविक है । यदि "पूर्वापरोभूतावयवः" का अर्थ विक्लित्तिरूप साध्य करें तो विक्लित्ति में भेद होने के कारण साध्य की एकरूपता को स्वीकार करने वाला मम्मट का ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध हो जायगा। इसलिए मानना चाहिए कि मम्मट को यह विक्लित्त्यर्थवाली व्याख्या मान्य नहीं थी।
यदृच्छात्मक उपाधिकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं :-किसी पदार्थ या व्यक्ति-विशेष का नाम रखने वाला व्यक्ति, रूढ़ शब्द का उस अर्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित कर देता है कि यह व्यक्ति इस नाम से बोधित होगा। इस यहच्छा (या इच्छा यहच्छा अपनी मर्जी) से रखा गया डित्थ आदि नाम (रूढ़ संज्ञा) को यदृच्छाशब्द कहते हैं। यह तो हुई इसकी सरल व्याख्या।
प्रतिपद व्याख्या इस प्रकार है--स्वरूपम्' का तात्पर्य है वर्णात्मक स्वरूप। 'अन्त्यबुद्धिनिर्णाह्यम्' में समास है 'अन्त्या चासो बुद्धिः', अन्त्या का तात्पर्य है स्वजन्य अर्थात् अन्त्यजन्य जो विशिष्ट बुद्धि उससे ग्राह्य । संज्ञा शब्द अपना प्रत्यक्ष (ज्ञान) कराने के बाद स्व-विशिष्ट (संज्ञाशब्दविशिष्ट) धर्मी (डित्यादि) का बोध कराते हैं । गो, शुक्ल, पचति इत्यादि पदों की स्थिति कुछ और है वे जात्यादि वैशिष्टय से अर्थबोधक होते हैं। अर्थात् गो पद, गोत्व जाति विशिष्ट का बोधक होता है । इसलिए एक गो में संकेतग्रह होने पर सजातीय (सकल गायों) का बोध हो जाता है। "डित्थ" शब्द इस तरह एक जगह संकेतग्रह होने पर अन्य डित्य का बोधक नहीं होता। जातिवाचकादि शब्द तथा यहच्छाशब्द में एक और असमानता है। यदृच्छाशब्द संहृतक्रम होता है अर्थात पूर्व-पूर्व प्रयोग को देखकर पर पर में जाति-वाचकादि शब्द का प्रयोग किया जाता है; जैसे किसी को गाय अर्थ के लिए गो शब्द का प्रयोग करते देखकर परवर्ती व्यक्ति सजातीय पशु के लिए गो शब्द का प्रयोग करता है, यह क्रम यहच्छा --- शब्द में नहीं है। इस मत में 'शब्द' द्रव्य है इसलिए यहच्छाशब्द में 'द्रव्य' उपाधि है। वही कहा गया है: