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काव्यप्रकाशः
न्यायनये सामान्यलक्षणया सर्वव्यक्त्युपस्थितावाद्यपक्षे न शक्तिग्रहासम्भवः, अन्त्यपक्षेऽपि मीमांसकमते यद्धर्मवत्तयोपस्थिते शक्तिग्रहस्तद्धर्माश्रयस्य स्मरणगोचरत्वं नानुपपन्नम, समानप्रकारकत्वस्य नियामकत्वाद् अतो व्यक्तिशक्ती दोषान्तरमाह-गौः शुक्ल इत्यादि, गोशुक्लादिपदानां व्यक्तिवाचकत्वे
है, उस अर्थ की भी यदि शाब्दबोध में प्रतीति माने तो “तत्त्सत्वे तत्सत्ता" और "तदभावे तदभावः" के आधार पर बनाये गये 'शक्तिग्रहसत्त्वे अर्थोपस्थितिसत्ता' और 'शक्तिग्रहाभावे अर्थोपस्थित्यभावः' इस नियम का उल्लंघन हो जायगा । नियम के उल्लंघन को ही व्यभिचार कहते हैं। इस व्यभिचारदोष के कारण शक्तिग्रह को 'अर्थोपस्थिति' का कारण मानना गलत हो जायगा । व्यभिचारात् का अर्थ है व्यभिचार (दोष) के प्रसङ्ग से, अर्थात् व्यभिचार होने से व्यक्ति में शक्ति नहीं मानी जा सकती।।
जैसे जिस गो व्यक्ति में गो शब्द का संकेतग्रह नहीं हुआ है, उसका भी यदि गो शब्द बोधक होता है तो गो शब्द से अश्वादि का भी ज्ञान होना चाहिए; क्योंकि दोनों (गो व्यक्ति-विशेष और अश्व) में गोशब्द के संकेतग्रह का अभाव समानरूप से है।
व्यक्तिवाद में अनन्त शक्ति की कल्पना का जो दोष दिखाया गया है। उसमें अरुचि दिखाते हुए लिखते हैं कि "नन न्यायनये"-न्यायदर्शन में सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्ति मानी जाती है। उससे एक घट का ज्ञान होने पर घटत्व जातिवाले सभी घटों का ज्ञान माना जाता है। उस सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्ति से एक व्यक्ति की उपस्थिति के बाद उस व्यक्ति में विद्यमान सामान्य (जाति) के कारण सकल व्यक्ति की उपस्थिति होने से व्यक्ति अनन्तवाद पक्ष में भी सकल व्यक्तियों का शक्तिग्रह असम्भव नहीं होगा किन्तु सकल व्यक्तियों का संग्रह सम्भव हो जायगा, इस तरह व्यक्ति के अनन्त होने के कारण जो दोष दिया गया था उसका उद्धार हो गया।
शक्तिग्रह में दिया गया व्यभिचारदोष भी नहीं होगा क्योंकि मीमांसक के मत के अनुसार जिस धर्म से युक्त होने के कारण उपस्थित का शक्तिग्रह होता है; उस धर्म के आश्रय, स्मृति गोचर होते ही हैं इसलिए घटत्व धर्म से युक्त होने के कारण घट की उपस्थिति होती है उस धर्म (घटत्व) के आश्रय (सकल घट) स्मृति में आयेंगे ही, इसलिए कोई दोष नहीं होगा । क्योंकि "यत्रयत्र शक्तिग्रहस्तत्र तत्र सामान्य प्रकारकव्यक्तिविशेष्योपस्थितिः" यह नियम मानेंगे। अर्थात जहाँ-जहाँ शक्तिग्रह होगा; वहाँ-वहाँ सामान्यप्रकारक व्यक्तिविशेष्यक उपस्थिति को कारण मानेंगे। पूर्वोक्त कार्यकारणभाव में कोई व्यभिचार नहीं है ।
यद्यपि इस तरह व्यक्ति में संकेतग्रह स्वीकार करने पर भी आनन्त्य और व्यभिचार दोष नहीं होंगे तथापि अन्य दोष होने के कारण व्यक्ति-शक्तिवाद नहीं स्वीकार करना चाहिए, यही दिखाते हुए लिखते हैं-यदि व्यक्ति में शक्तिग्रह मानें तो "गौः शुक्ल: चल: डित्थः" इत्यादि ।
यहाँ गो शब्द जातिवाचक है, शुक्ल पद गुण वाचक है, चल पद क्रिया वाचक है और डित्थ पद गाय का नाम होने से यहच्छात्मक संज्ञा वाचक है । इसलिए 'सफेद रंग की, चलती हुई डित्थ नाम की गाय' इस प्रकार का बोध प्रतिपदविषयविभागपूर्वकबोध होता है। व्यक्ति में शक्ति मानने पर चारों पदों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह पूर्वोक्त जाति शब्द, गुण शब्द, क्रिया शब्द, और यदृच्छाशब्द नाम से प्रसिद्ध और सर्वानुभूत विषय-विभाग नहीं बन सकता। गो शुक्ल आदि सभी पद (व्यक्ति पक्ष में) व्यक्ति-वाचक ही होंगे, तब तो घड़ा वाचक "घट: कलशः" आदि पर्यायवाची शब्दों की तरह उनका एकसाथ प्रयोग नहीं होना चाहिए। पर एकसाथ प्रयोग होता है; इसलिए व्यक्ति की उपाधियों-जाति, गुण, क्रिया, और यदृच्छा–में शक्ति माननी चाहिए।
१. व्यक्त्यानन्त्यपक्षे।
२. व्यभिचारपक्षे।