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....काव्यप्रकाशः
हेतोरविकलत्वेन लाक्षणिकव्यञ्जकमात्रभेदस्य साध्यत्वे बाधितत्वेन च विशिष्य तत्तच्छब्दपक्षतायां सामान्यतः सङ्केताश्रयत्वं व्यभिचारीति हेतुर्विशिष्य तत्तद्विषयसङकेताश्रयत्वरूपो वाच्यः, तथा चामुकशब्दोऽत्रार्थे सङ्केतित इति विशिष्य तदज्ञानेज्ञानरूपासिद्धिरिति तत्परिहाराय सम्बन्धिनं सङ्केतविषयमुपदर्शयति
वाचक शब्द को पक्ष बनाकर उसमें लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्द-भिन्नत्व सिद्ध करना चाहें, तो हेतु बाधित हो जाने के कारण अनुमापक नहीं होगा। इसलिए विशेष करके तत्तच्छन्द (शब्द विशेष) को पक्ष बनाकर अनुमान करना होगा; उस अनुमान में सामान्यतः संकेताश्रयत्व को हेतु नहीं बनाया जा सकता ; क्योंकि वह हेतु व्यभिचारी हेतु होगा (संकेताश्रय होते हुए भी गङ्गा शब्द लक्षक और व्यञ्जक भी है, इसलिए वह हेतु साध्याभाववान् में वर्तमान रहने के कारण व्यभिचारी है ।) इसलिए सामान्यतः संकेताश्रय को हेतु न मानकर विशेष करके तत्तद्विषयसङ्केताश्रयत्व को हेतु मानना पड़ेगा । अतः यह जानना आवश्यक है कि अमुक शब्द इस अर्थ में संकेतित है; क्योंकि विशेष रूप में यदि यह नहीं जानेंगे कि कौन शब्द किस अर्थ में संकेतित है; तो अज्ञान के कारण हेतु असिद्ध नाम के हेत्वाभास की श्रेणी में गिना जायगा। इसलिए पूर्वोक्त दोष के परिहार के लिए इससे सम्बद्ध संकेत विषय का वर्णन करते हैं कि 'सङ्केतितश्चतुर्भेदः' इति । 'सङ्केत-ग्रह-विचार
सतग्रह किस में होता है इस प्रश्न का उत्तर अनेक दार्शनिकों ने विभिन्न रूप में दिया है। मीमांसक जाति में शक्ति मानने हैं । कुछ दार्शनिक व्यक्ति में ही संकेतग्रह मानते हैं । नैयायिक जाति-विशिष्ट व्यक्ति में संकेत-ग्रह स्वीकार करते हैं। यद्यपि व्यवहार-साधक व्यक्ति ही है; 'गां पश्य', 'अश्वम् आनय' इत्यादि स्थल में 'दर्शन' और 'आनयन' व्यवहार किसी व्यक्ति में ही होता है इसलिए सङ्कत ग्रह व्यक्ति में मानना उचित प्रतीत होता है किन्तु व्यक्ति में शक्ति मानने से 'आनन्त्य' तथा 'व्यभिचार' दो प्रकार के दोष होंगे । जो शब्द जिस अर्थ में संकेतित होता है; उस शब्द से उसी अर्थ की प्रतीति होती है। बिना संकेत-ग्रह के अर्थ की प्रतीति नहीं होती है। इस लिए व्यक्ति में यदि संकेत-ग्रह मानें तो जिस व्यक्ति विशेष में संकेत ग्रह हुआ है; उस व्यक्ति विशेष की ही उस शब्द से उपस्थिति होगी अन्य व्यक्तियों की प्रतीति नहीं होगी। जैसे 'गो' शब्द से एक गाय की, जिसमें कि संकेतग्रह हआ है प्रतीति होगी; अन्य गायों की प्रतीति नहीं होगी। इसलिए अन्य व्यक्तियों (गायों) की प्रतीति के लिए प्रत्येक गो व्यक्ति में अलग-अलग संकेतग्रह मानना आवश्यक होगा। ऐसी परिस्थिति में गो शब्द से सभी गो व्यक्तियों में अलग-अलग संकेतग्रह मानने में अनन्त शक्तियों की कल्पना करनी होगी। दूसरी बात यह है कि- व्यवहार से, वर्तमान देश और . काल की गो व्यक्तियों में ही संकेतग्रह हो सकता हैं; भूत-भविष्यकालों तथा देशान्तर की सब गो व्यक्तियों में संकेतग्रह सम्भव भी नहीं है। इसलिए व्यक्ति में संकेतग्रह नहीं माना जा सकता।
पूर्वोक्त 'आनन्त्य दोष से बचने के लिए यदि यह कहें कि- 'सब गो व्यक्तियों में अलग-अलग शक्ति-ग्रह न मानकर दो चार व्यक्तियों में ही व्यवहार से संकेत-ग्रह मानेगे, तो शेष व्यक्तियों का बोध, वहाँ संकेत-ग्रह के अभाव से नहीं होगा इसलिए व्यभिचार' दोष होगा। संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थ की प्रतीति करता है यह एक माना हआ नियम है । यदि बिना संकेतग्रह हुए गो व्यक्तियों का बोध 'गो' शब्द करायेगा; तो उस नियम का उल्लघन होने के कारण 'व्यभिचार' दोष होगा। व्यभिचार का अर्थ है सर्वमान्य नियम का उल्लंघन ।
तीसरी बात यह है कि महाभाष्यकार ने 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः' माना है। इस तरह उनके विचार से शब्दों के चार विभाग बनते हैं-जाति शब्द गुण शब्द, क्रिया शब्द और यहच्छा शब्द । यदि व्यक्ति में शक्ति मानें तो पूर्वोक्त विभाग नहीं किये जा सकते; क्योंकि व्यक्ति में शक्ति मानने पर गौः, शुक्ल:, चलः, डित्थः आदि चारों