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वाचकादीनां क्रमेण स्वरूपमाह
द्वितीय उल्लासः
( सू० 8 ) साक्षात्सङ्केतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचकः ॥७॥
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पस्थापनाय यत्र चैत्यादिपदं प्रयुक्तम्, तत्र लाक्षणिकेऽतिव्याप्तिवारकत्वात् । द्विरेफादिपदे तादृशस्य कोशकारादिसङ्केतस्य सत्त्वेऽपि व्यवहिततद्विषयत्वेनैव लाक्षणिकतया व्यवह्रियमाणेऽतिव्याप्तिवारकत्वाच्च ।
ननु तथापि तस्य लाक्षणिकेऽतिव्याप्तिः, तत्र साक्षात्सङ्केतस्यैव शक्यसम्बन्धरूपलक्षणात्वेन शब्दस्यापि तद्विषयत्वात् न च शब्दस्य सङ्केताश्रयत्वेन न तद्विषयत्वम्, अन्यथा तस्यापि शक्यत्वप्रश्न यह उठता है कि वाचक शब्द के लक्षण में साक्षात् पद का निवेश नहीं करने पर भी लक्ष्यार्थ और यङ्घार्थ में कोशकारादि द्वारा संकेत नहीं करने के कारण लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों की व्यावृत्ति हो ही
जायगी फिर 'साक्षात् ' पद का निवेश क्यों किया गया है ?
उत्तर यह है कि वट शब्द का संकेतित अर्थ बरगद का पेड़ है। बरगद के पेड़ के पास बसे हुए गाँव को भी दूसरा अर्थ भी संकेतित अर्थ है । यदि साक्षात् पद मानना पड़ेगा। इस तरह लक्षण में अतिव्याप्ति चैत्यादि ( श्मशान में चिता के स्थान पर रोपे गये
लोग 'बट' गाँव या 'बट' कह दिया करते हैं। प्रथम अर्थ की तरह का निवेश नहीं करेंगे, तो बट शब्द को 'गाँव' अर्थ का भी वाचक दोष आजायगा । इसी बात को समझाते हुए टीकाकार कहते हैं कि वृक्षादि ) जिस नाम का होता है; उस स्थान को भी उसी नाम से पुकारते हैं। जैसे बनारस में दश अश्वमेघ यज्ञ होने के कारण घाट का नाम ही दशाश्वमेध पड़ गया । पाकिस्तान पर विजय के बाद देहान्त होने के कारण लालबहादुर शास्त्री की श्मशानभूमि का नाम 'विजय घाट' रखा गया। इन उदाहरणों के द्वितीय अर्थ में शब्द का व्यवहित संकेत है, साक्षात् नहीं, वहाँ लाक्षणिक व्यवहित संकेतित अर्थ में अतिव्याप्ति दोष न हो इसलिए साक्षात् पद का निवेश करना अत्यावश्यक है ।
एक बात और — द्विरेफ पद को कोशकारादि ने भ्रमर अर्थ में संकेतित माना है । किन्तु सम्प्रदाय के अनुसार यह शब्द भ्रमर अर्थ का वाचक नहीं, अपितु इस अर्थ में लाक्षणिक है 1 'द्विरेफ' शब्द 'द्वौ रेफो यस्मिन् शब्दे' इस विग्रह के अनुसार भ्रमर शब्द का वाचक है; क्योंकि दो रेफ 'भ्रमर' इस ध्वनि में ( शब्द में ) है न कि भौंरा अर्थ में । इस लिए बाद में 'द्विरेफं पश्य', 'द्विरेफः कृष्णो भवति' इत्यादि स्थलों में 'तात्पर्यानुपपत्ति- मूलक लक्षणा' की जाती है और 'भ्रमर' अर्थ लिया जाता है । यदि वाचक के लक्षण में साक्षात् पद का निवेश नहीं करेंगे तो कोशकारादि का संकेत होने के कारण वाचक का लक्षण 'द्विरेफ' पद में भी संघटित हो जायगा । इसलिए साक्षात् पद का निवेश किया गया जिससे 'द्विरेफ' शब्द में, जो भ्रमर अर्थ में लाक्षणिक माना जाता है, अतिव्याप्ति दोष न हो। निवेश करने पर दोष नहीं हुआ क्योंकि द्विरेफ शब्द भ्रमर अर्थ में कोशकारादि द्वारा साक्षात् संकेतित नहीं हैं; किन्तु व्यवहित संकेतित है।
● लक्षण में तब भी ( साक्षात् पद के निवेश करने पर भी) लाक्षणिक शब्द (गङ्गायां घोषः इत्यादि में प्रयुक्त गङ्गा शब्द) में अतिव्याप्ति दोष हो ही रहा है; क्योंकि शक्य सम्बन्ध को ही 'लक्षणा' कहते हैं और 'शक्य- सम्बन्ध' का अर्थ साक्षात् संकेत ही है इस तरह लाक्षणिक शब्द भी शक्य-सम्बन्धरूप लक्षणा का विषय हो जायगा; क्योंकि साक्षात् संकेतरूप जो शक्य सम्बन्ध है, उसका विषय शब्द भी है।
यदि आप कहें कि शब्द तो संकत का आश्रय है वह संकेत का विषय नहीं हो सकता अन्यथा शब्द को भी शक्य (अर्थ) मानना पड़ेगा ? तो इस कथन में निम्नलिखित युक्ति का विरोध होगा "गामुच्चारयति" में शब्द ही शक्य है; अर्थ नहीं क्योंकि अर्थ का उच्चारण नहीं हो सकता । गो पद किरण, पृथ्वी, इन्द्रिय, गाय आदि अनेकार्थक होने के