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द्वितीय उल्लासः
अत्र निष्पन्दत्वेन श्राश्वस्तत्वं
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तेन च जनरहितत्वम्, अतः सङ्केतस्थानमेतदिति कयाचित् कञ्चित्प्रत्युच्यते । अथवा मिथ्या वदसि न त्वमत्रागतोऽभूरिति व्यज्यते ।
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निरुद्योगेति सम्बोधनपदम्, अत एव वृत्तौ निस्पन्दत्वेनेत्युक्तम् न तु निश्चलत्वेनेत्यतो न पौनरुक्त्यम्, 'शङ्खशुक्तिः' महाशुक्तिः शङ्खः शुक्तिश्चेति वा, अत इत्यत्र वाऽथवेति विकल्पः, अत इत्यादिना सम्भोगेऽथवेत्यादिना विप्रलम्भे व्यङ्ग्यमुपदशितम् ।
मिश्रास्तु - हे निश्चल ! तदनुसन्धानरहित ! स्वयमेवागत्य पश्य, वराकी अनुकम्प्या मत्सखी बिसिन पत्र राजते निस्पन्दा सम्प्रत्येव निश्चेष्टा अग्रे तु न स्थास्यत्येव, निर्मलेत्यादिना बिसिनीपत्रस्य तत्स्पर्शादितिकाठिन्यं शरीरस्य च विरहातिरेकात् पाण्डुत्वमित्युपमाव्यङ्गयेन पाण्डुत्वेन विप्रलम्भातिशयो व्यङ्गय इत्याहुः । क्रमेणेति । उद्देशक्रमेणेत्यर्थः । अर्थजिज्ञासारूप - प्रतिबन्धकापगमरूपोऽवसर
यहाँ बलाका के निस्पन्द होने से उसकी निर्भयता और आश्वस्तता ( लक्षणा से ) सूचित होती है । उस ( आश्वस्तता - रूप लक्ष्यार्थं ) से ( स्थान का ) निर्जन होना (व्यञ्जना से) सूचित होता है । इसलिए यह संकेत स्थान
सकता है । यह (बात प्रथम व्यङ्गधार्थ से, फिर व्यञ्जना द्वारा) कोई नायिका किसी से अर्थात अपने कामुक से कह रही है । अथवा "झूठ बोलते हो तुम यहाँ नहीं आये थे । यदि आये होते, तो यह बलाका ऐसी निश्चल निस्पन्द नहीं रह सकती थी" यह (प्रथम व्यङ्ग्यार्थं से व्यञ्जना द्वारा ) सूचित होता है ।
टीकार्थ - उअ यह 'पश्य' अर्थ में देशी भाषा में प्रयुक्त होता है। चलना शरीर की क्रिया है और स्पन्दन शरीर के अवयवों की क्रिया है । इसीलिए यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं हुआ । अन्यथा अनेक स्थानों पर समान अर्थ में प्रयुक्त इन दोनों शब्दों के प्रयोग से यहाँ पुनरुक्त दोष हो जाता। तात्पर्य यह है कि 'चलना' किया-शरीर में होती है उसके होने पर चलनेवाला व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँच जाता है । परन्तु स्पन्दन किया शरीर के अवयवों की क्रिया है । वह स्थानान्तर प्रापक नहीं होती है। बस या मोटर जब स्टेण्ड पर यात्रियों को उतारने और चढ़ाने के लिए खड़ी रहती है; उस समय भी उसमें स्पन्दन क्रिया रहती है; पर चलन-क्रिया वहां नहीं रहती । इसीलिए कहा गया है 'ffesलने' यहाँ 'किञ्चिच्चलने' का यही भावार्थ है। इसलिए चलनम् और स्पन्दनम् के प्रयोग में भी पुनरुक्ति नहीं होती ।
वस्तुतः 'निश्चल' इसे नायक के लिए प्रयुक्त सम्बोधन पद मानना चाहिए और अर्थ करना चाहिए निरुद्योग, आलसी । इसीलिए लिए वृत्ति में "बलाकाया निस्पन्दत्वेन" यहाँ निस्पन्दत्व को ही 'आश्वस्तत्व' व्यङ्गय का हेतु कहा . गया है, निश्चलत्व को नहीं । शङ्ख- शुक्ति का अर्थ है महाशुक्ति या द्वन्द्व समास के द्वारा शंख और शक्ति भी अर्थ 'किया जा सकता है। 'अथवा इस शब्द के द्वारा जो पक्षान्तर बताया गया है उसका सम्बन्ध 'अतः सङ्केतस्थानमेतत्' यहीं मानना चाहिए, न कि पूर्ववाक्यों में । " अतः सङ्केतस्थानमेतत्" यहां से लेकर 'प्रति उच्यते' तक के वाक्य से जो व्यङ्गय दिखाया गया है वह संम्भोग श्रृंगार से सम्बद्ध है और "अथवा मिथ्या" इत्यादि वाक्य से दिखाये गये व्यङ्गघ का सम्बन्ध विप्रलम्भ शृंगार से है ।
मिश्र का कहा कहना है कि हे निश्चल अर्थात् उस (मेरी सखी) की खोज-खबर न रखने वाले ! स्वयं ही तुम आकर देखो, बेचारी मेरी सखी जो अनुकम्पा के योग्य है, बिसिनी के पत्रों पर सो रही है, वह अभी निसान्द (निष्चेष्ट) हो गयी है, आगे तो वह रहेगी ही नहीं, नहीं जीयेगी ।