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द्वितीय उल्लासः अत्र मत्प्रियं रमयन्त्या त्वया शत्रुत्वमाचरितमिति लक्ष्यम् । तेन च कामुकविषयं सापराधत्वप्रकाशनं व्यङ्ग्यम् । वाक्यार्थ एव व्यञ्जकः तेन 'दूनाऽसि' इत्यत्र हर्षिताऽमि 'मत्कृत' इत्यत्र स्वकृत इति, 'सद्भावे'त्यत्रासद्भावेति, 'स्नेहेति विरोधिलक्षणया शत्रुत्वमर्थः । मदित्यादि च पर्यवसितार्थकथनमिति वदन्ति। .
वस्तुतः प्रवहन्नीरायां गम्भीरायां नद्यां घोषः प्रतिवसतीत्यत्र मीमांसकमते सप्तम्यन्तपदत्रयरूपवाक्येन तीरं लक्ष्यत इति वाक्ये लक्षणा, न्यायादिनये च नदीपद एव लक्षणा, तत्पूर्व पदद्वयं चानन्वितार्थकमेव । चित्रगुमानयेति बहुव्रीहौ चित्रगोरूपपदद्वयात्मकवाक्ये यथा गोपदे वाऽन्यपदार्थ लक्षणा, तद्वदत्रापि प्रथमार्धे सुभग-क्षणपदं विहायावशिष्टसकल-पदात्मकवाक्ये तद्वाक्यस्थ साधयन्तीति'पदे वा लक्षणया रमयन्तीत्यर्थः, सदृशमित्यन्तोत्तरार्धवाक्ये तत्रस्थसदृशपदे वा लक्षणया शत्र त्वमर्थः, अत एव रमयन्त्येत्येतावतैव प्रथमवाक्यार्थः शत्र त्वमित्येतावतैव चोत्तरवाक्यार्थः प्रशितो वृत्तिकृता । महावाक्ये चावान्तरवाक्यार्थस्योत्तरवाक्यार्थविशेषणत्वेनान्वयानियमात् तादृशबोधार्थं साधयन्तीति प्रथमान्तं
अत्रेति-यहां पर भी लक्ष्य अर्थ से घटित वाक्यार्थ ही व्यञ्जक है। इससे विपरीत-लक्षणा के द्वारा "दूनासि' 'दुःखी हो' का अर्थ है प्रसन्न हो। 'मत्कृते' मेरे लिए का अर्थ है 'अपने लिए' 'सद्भाव' और 'स्नेह का 'असद्भाव और शत्रुता' । “मत्प्रियं रमयन्त्या" इत्यादि वृत्ति के द्वारा पर्यवसित अर्थ अर्थात् फलितार्थ कहा गया है। वह इस प्रकार है-'मेरे प्रिय के साथ रमण करके तूने (मेरे साथ) शत्रुता दिखायी है, निबाही है, यह लक्ष्य अर्थ है, इससे कामुक विषयक सापराधत्व प्रकाशन व्यङ्गय है ।
यह श्लोक वञ्चिता नायिका की उक्ति है। नायिका की भेजी हुई दूती ने उसका संवाद नायक के पास पहचाने के बजाय स्वयं उसके साथ स्वर-विहार करके नायक को धोखा दिया है। यहाँ का व्यङ्गय वक्ता और बोद्धा के वैशिष्टय से है।
वस्तुतः पानी के प्रवाह वाली गहरी नदी में घोष वसा हुआ है (प्रवहन्नीरायां गभीरायां नयां घोषः प्रतिवसति) यहाँ मीमांसक के मत में 'तीन सप्तम्यन्त पदात्मक वाक्य से तीरार्थ लक्षित हुआ है' ऐसा माना गया है। (इसलिए मीमांसक के अनुसार यहाँ वाक्य में लक्षणा मानी जायगी।) न्यायादि सिद्धान्त के अनुसार नदी पद में ही लक्षणा मानी जाती है और उस पद (नदी पद) के पूर्व के दोनों पद अनन्वितार्थक (असम्बद्धार्थक) ही माने गये हैं। "चित्रगुमानय" इत्यादि बहब्रीहि-घटित दो पद वाले वाक्यों में जैसे गोपद में लक्षणा करते हैं और चित्रगुण-विशिष्ट गोस्वामी अर्थ का बोध मानते हैं अथवा 'अन्यपदार्थे' में लक्षणा मानकर उक्त अर्थ करते हैं और चित्र पद लक्षणा का विषय नहीं रहता है; उसी तरह यहाँ (साधयन्ती इस श्लोक में) भी प्रथमार्ध में 'सुभग' और 'क्षण' पद को छोड़कर शेष सभी पद समूहात्मक वाक्य में अथवा उस वाक्य के 'साधयन्ती' इस पद में लक्षणा करके 'रमयन्ती' यह लक्ष्यार्थ निकालना चाहिए। सदृशम्' तक के उत्तरार्ध श्लोक के वाक्य में अथवा उस वाक्य के 'सदृश' पद में लक्षणा मानकर 'शत्रुत्व' रूप लक्ष्यार्थ की प्रतीति माननी चाहिए। इसीलिए वृत्तिकार ने "मत्प्रियं रमयन्त्या त्वया शत्रुत्वमाचरितम्” यहाँ 'रमयन्त्या' 'रमण करती हुई' इसी रूप में प्रथम वाक्यार्थ अर्थात् “शत्रुत्वम्" शत्रुता इसी शब्द से 'उत्तर वाक्यार्थ' दिखाया है। महावाक्य में अवान्तर-वाक्यार्थ (मध्यवर्ती वाक्यार्थ) का उत्तर-वाक्यार्थ के साथ विशेषण-रूप में अन्वय हो इस प्रकार का कोई नियम नहीं होने से उस प्रकार के बोध के लिए प्रयुक्त 'साधयन्ती' इस प्रथमान्त पद को "रमयन्त्या" के रूप में तृतीयान्त बनाकर प्रस्तुत करके उसे त्वया का विशेषण बताया गया है, यह मेरी बुद्धि कहती है। "तेन च' इत्यादि वृत्तिगत उत्तर वाक्य के 'कामुकविषयम्' का अर्थ है