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हितान्वयपक्षेऽपि पदार्थसंसर्गरूपवाक्यार्थस्य व्यञ्जकत्वे सम्बन्धिनः पदार्थस्यापि व्यञ्जकत्वात् सम्बन्धिनोऽभावे सम्बन्धाभानात् । वस्तुतोऽन्वयांशे शक्तिज्ञानं न कारणम् अपि त्वाकाङ्क्षादिज्ञानसहकृता शक्तिरेव स्वरूपसतीत्यभिहितान्वयवादार्थः । तथा च शक्तिविषयता तत्रास्त्येवेति सोऽपि वाच्य एवेति न काऽप्यनुपपत्तिः । वयं तु स्वरविहारार्थिनीतिवक्तृविशेषाभिधानं तेन स्वरविहारार्थिनीयमिति कृत्वा व्यज्यते, मातरिति पदेनालङ्घनीयाज्ञत्वं तद्वचनस्थत्वं च, गृहपदेनावश्यकत्वम्, अद्येतिपदेन कालान्तरव्युदासः, त्वयेतिपदेन कुतर्काच्छायम् - [दनम्] तद् 'भणे'तिपदेन स्वोत्प्रेक्षाविरहः, किं करणीयमितिपदेनान्यथासिद्धौ स्वगमनाभावः, वासरपदेन दिनावसाने कुलाङ्गनया मया त्वदाज्ञयाऽप्यन्यसद्मनि न गन्तव्यमिति, इदानीमेवाऽऽज्ञापयेत्यादिरित्यर्थः ।
अथवा सङ्गमसमयजिज्ञासया सन्निहितमुपनायकं प्रति दिने गते सङ्गमो भविष्यतीत्येवमेवेत्यादिना व्यज्यते तदनुग्राहकतयैव च मातरित्यनेनालङ्घनीयाज्ञत्वं तेन च स्वनिष्ठसङ्केतस्थानगमनालस्य
टोका-'गृहोपकरणम्' का अर्थ अन्न-व्यञ्जनादि है तथा 'साधितम्' का अर्थ है कथितम्-अर्थात् "कहा" है। 'स्वच्छन्द विहार के लिए जाना चाहती है' यह व्यङ्गय वाक्यार्थ से अभिव्यक्त होता है वाक्यार्थ को (अभिहितान्वयवाद में) वाच्य नहीं माना गया है, ऐसी स्थिति में इसे वाच्यार्थ-व्यञ्जकता का उदाहरण देना गलत है, ऐसा नहीं मानना चाहिए क्योंकि अन्विताभिधानवाद में वाक्यार्थ को वाच्य माना गया है । अतः अन्विताभिधानपक्ष में वाक्यार्थ और वाच्य दोनों पर्याय-जैसे हैं। इसलिए वाक्यार्थ के व्यञ्जक होने के कारण इसे वाच्यार्थव्यञ्जकता का उदाहरण माना जा सकता है। अभिहितान्वयवाद पक्ष में भी जहाँ पदार्थ को वाच्य माना गया है; पदार्थ वहां संसर्गरूप वाक्यार्थ यदि व्यञ्जक है तो वाक्यार्थ के सम्बन्धी पदार्थ की व्यञ्जकता स्वतः सिद्ध हो जाती है सम्बन्धी के अभाव में सम्बन्ध की प्रतीत ही नहीं हो सकती है। इसलिए पदार्थ को; संसर्ग यदि व्यञ्जक है तो पदार्थ जो वाच्य है, व्यजक कह सकते हैं । इसलिए पूर्वोक्त श्लोक वाच्यार्थ की व्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है।
वस्तुतः अभिहितान्वय का अर्थ यह नहीं है कि अभिधा के द्वारा प्रतिपादित पदार्थों का अन्वय और वाक्यार्थ-बोध के प्रति अन्वयांश में शक्तिज्ञान को कारण मानना अनावश्यक है। किन्तु आकांक्षादि ज्ञान से सहकृत 'शक्ति को ही स्वरूप सम्बन्ध से कारण मानना चाहिए। इस तरह आकांक्षादि के सहकार से युक्त शक्ति को स्वीकार करना ही अभिहितान्वयवाद का अर्थ हैं। इस प्रकार वाक्यार्थ में भी शक्ति है ही। शक्ति का विषय होने से वाक्यार्थ भी वाच्य ही है । इसलिए वाक्यार्थ जहाँ व्यञ्जक है; वहाँ वाच्य को भी व्यञक मान ही सकते हैं।
___ हमें तो यहां इस तरह व्यङ्गय प्रतीत होते हैं- "स्वर विहार करने वाली है" इस रूप में वक्तृ-विशेष का कथन किया गया है। इसलिए यह (स्त्री) स्वच्छन्द विहरार्थिनी है इस रूप में व्यङ्गय मानना चाहिए । "मातः" इस पद से उसकी आज्ञा की अनुल्लंघनीयता प्रकट होती है। वक्त्री यहां यह दिखाती है कि वह उसकी आज्ञापालिनी है । गृहोपकरण पद में प्रयुक्त गृह शब्द से उपकरणों के लाने की आवश्यकता और अद्य (आज) पद से दिन में लाने का निषेध व्यङ्गय होता है। 'त्वया' पद से यह प्रतीत होता है कि तूने ही गृहोपकरण का अभाव बताया है, मैंने अपनी ओर से बाहर जाने के लिए कोई मनगढन्त कल्पना नहीं की हैं। "तद् भण" 'इसलिए बोलो' पद • से अपनी इच्छा का अभाव व्यक्त होता है। क्या करना चाहिए; यह प्रश्न यह प्रकट करता है कि यदि तुम किसी
और उपाय से काम निकालने की बात सुझा दो तो मैं नहीं जाऊंगी। "वासर" पद से ध्वनित होता है कि दिन छिप जाने पर कुलीन स्त्री होने के कारण मुझे तेरी आज्ञा से भी दूसरों के घर नहीं जाना चाहिए इसलिए इसी समय मुझे (जाने की) आज्ञा दो इत्यादि व्यङ्गच अर्थ प्रतीत होते हैं ।
___ अथवा संगम (मिलन) के समय की जिज्ञासा (जानने की इच्छा) से निकट में आये हुए नायक को देखकर नायिका ने इस श्लोक के द्वारा संकेत किया है कि 'दिन छिपने पर संगम होगा' यही यहाँ व्यङ्गय है। "मातः"