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लक्ष्यस्य यथा -
काव्यप्रकाशः
* साहेन्ती सहि सुहस्रं खरणे खणे दूम्मिश्रासि मज्भकए । सब्भावणेहकरणिज्जसरिस दाव विरइयं तुमए ॥७॥
विरहः, गृहोपकरणमित्यनेन न केवलं मातुराज्ञैव अपितु ममापि तत्संविधानौत्सुक्यमिति, अद्येत्यनेन दिवसान्तरे व्याजान्तरं नाऽऽसीदिति नाऽऽगतम्, अद्य तु व्याजबीजाभावाभाव इति, त्वयेत्यनेन मयैव कल्पयित्वा प्रतारणा न क्रियतेऽपि तु त्वत्समक्ष मनयैवोक्तमिति त्वयैव श्रुतमिति, किं करणीयमित्यनेन त्वत्समीहितसाधनार्थमियं मयाऽभ्यर्थ्यत एवेति, भरणेत्यनेनोपायान्तरं च यदि तव स्फुरति तदा त्वयैवानेव प्रकारान्तरेणाहं बोधनीयेति व्यज्यतं इत्यर्थं इत्यवलोकयामः ।
'साहेती 'ति
साधयन्ती सखि ! सुभगं क्षणे क्षरणे दूनाऽसि मत्कृते । सद्भावस्नेहकरणीयसदृशं तावद् विरचितं त्वया ॥७॥
'साधयन्ती' - अनुनयन्ती, 'दूनाऽसि ' - दुःखिताऽसि, 'मत्कृते' - मदर्थम् । प्रत्रेति । अत्रापि लक्ष्यघटितो
इत्यादि पद उस व्यङ्गय की प्रतीति कराता है। जैसे 'मातः ' पद से 'सम्बोध्य की आज्ञा शिरोधार्य है' यह प्रकट होता है और इससे सिद्ध होता है कि माता की आज्ञा मिलते ही वह संगम के संकेत-स्थान पर जाने में आलस्य नहीं करेगी । “गृहोपकरण” यह पद प्रकट करता है कि सामान लाने में न केवल माता की आज्ञा ही प्रेरक है, अपितु वह स्वयं भी सामान जुटाने को उत्सुक है । क्योंकि वह भी अपने को परिवार का एक जिम्मेदार सदस्य समझती है । 'अ' से माता के प्रति तो यह व्यङ्ग्य प्रतीत होता है कि आज तुमने आटा-दाल आदि सामग्री का अभाव बताया है; इसलिए पहले नहीं गयी । और उपपति के प्रति यह प्रतीत होता है कि और दिनों में कोई बहाना नहीं था इसीलिए वह संकेत स्थान पर नहीं आ सकी। आज तो जाने का कारण ( बहाना ) मिल गया है । 'त्वया' पद यह सूचित करता है कि मैंने स्वयं बहाना बनाकर धोखा नहीं दिया है; किन्तु तेरे ( उपपति के ) सामने इसी ने कहा है और तुमने सुना है । “किं करणीयम्” इससे तेरी इच्छा की पूर्ति के लिए मैं इसकी (जिसको माता कहा गया है उसकी ) प्रार्थना कर रही हूँ । भण (बताओ) पद से प्रतीत होता है कि 'यदि तुझे कोई और उपाय दिखता है तो तुम (उपपति) मुझे इसी तरह का कोई अन्य प्रकार बताओ' इत्यादि व्यङ्गघ यहाँ प्रतीत होते हैं ।
और ' अथवा ' के द्वारा बताये गये
प्रथम पक्ष में व्यङ्गय वक्तृ-विशेष के कारण से प्रकट होता द्वितीय पक्ष में वक्तृ और बोद्धव्य दोनों का वैशिष्टय है । द्वितीय पक्ष अधिक चमत्कारी है क्योंकि उसमें दुहरा व्यङ्गय है ।
लक्ष्य (अर्थ के व्यञ्जकत्व) का (उदाहरण) जैसे- 'साहेन्ती' इत्यादि ।
अर्थात् — हे सखि, उस सुन्दर का अनुनय-विनय बार-बार करती हुई तूने मेरे लिए बड़ा कष्ट उठाया है । ( अब इसकी आवश्यकता नहीं है ) मेरे प्रति अपनी सद्भावना और स्नेह के सदृश जो तुझे करना चाहिए था, वह तूने कर दिखाया ।
यहाँ 'साधयन्ती' का अर्थ है 'अनुनय-विनय करती हुई' । दूनासि का अर्थ 'दुःखितासि' 'दुःखी हो' है । 'मत्कृते' का अर्थ है 'मेरे लिए' ।
* गाथाच्छन्दः ।