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द्वितीइ उल्लासः
शङ्क्याह -- सर्वेषामिति, अपिः सर्वेषामित्यन्तरं योज्यः । तथा चार्थत्वव्याप्यधर्मस्यैवार्थविभाजकतावच्छेदकत्वं व्यञ्जकत्वस्य चार्थत्वव्यापकत्वेन तदव्याप्यत्वाद् न तेन रूपेण विभाग इत्यर्थः ।
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अथैवं सति वाच्यत्वादेरप्यर्थत्वव्यापकत्वेन तेनापि रूपेण विभागानुपपत्तिः, न च व्यञ्जकत्वस्य शब्देऽपि सत्त्वान्नार्थत्वव्याप्यत्वं वाच्यत्वादेः तत्रासत्त्वादर्थत्वव्याप्यत्वमपीति वाच्यं शब्देऽपि शब्दपदवाच्यत्वाद् अर्थत्वसत्त्वाच्चेति चेद्, न यत्र गङ्गार्थत्वं तत्र गङ्गाशब्दवाच्यत्वमिति न व्याप्तिः लक्ष्यादौ व्यभिचाराद् यत्र गङ्गाशब्दार्थत्वं तत्र व्यञ्जकत्वमित्यत्र च न व्यभिचार इति विशेषव्याप्तेरादरणी
अर्थ की अपेक्षा व्याप्य धर्म हैं। इसलिए यह तो कहा जा सकता है कि अर्थ के तीन भेद हैं-वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय । परन्तु व्यञ्जकत्व-धर्म अर्थत्व-धर्म का व्याप्य धर्म नहीं है, अपितु व्यापक धर्म है । क्योंकि व्यञ्जक शब्द भी होता है; इसलिए व्यञ्जकत्व के आश्रय शब्द और अर्थ दोनों हो सकते हैं और अर्थत्व का आश्रय केवल अर्थ हो सकता है । इसलिए कौए का एक भेद पक्षी है; यह जिस तरह नहीं कह सकते वैसे ही अर्थ का एक भेद व्यञ्जक है; यह नहीं कहा जा सकता । अतः व्यञ्जक रूप में अर्थ का विभाग नहीं बताना ग्रन्थ की न्यूनता का सूचक नहीं है।
'प्रथैवं सतीत्यादि (टीका)
पूर्व समाधान को सदोष बताते हुए लिखते हैं कि यदि व्यापकतत्त्व का विभाग मानना गलत है, तो एक दोष यह आयगा कि वाच्य को भी अर्थ का विभाग नहीं माना जा सकता। क्योंकि वाच्यत्व धर्म अर्थत्व की अपेक्षा व्यापक है । "व्यञ्जकत्व तो शब्द में भी है इसलिए व्यञ्जकत्व को अर्थत्व का व्याप्य नहीं कह सकते किन्तु वाच्यत्व आदि धर्म शब्द में नहीं हैं; क्योंकि शब्द वाच्य नहीं है; वह तो वाचक है; इस तरह अर्थत्व धर्म की अपेक्षा वाच्यत्व, लक्ष्यत्व और व्ययङ्गत्व धर्म अल्प-क्षेत्रवर्ती होने के कारण व्याप्य धर्म है इस लिए वाच्य आदि के रूप में अर्थ का विभाग करना ठीक ही है" यह कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि शब्द पद का 'वाच्य' शब्दरूप 'अर्थ' है, इस लिए वाच्यत्व शब्द में भी है। 'शब्द' भी 'शब्द' शब्द का अर्थ ही है; इसलिए वाच्यत्व धर्म अर्थ की अपेक्षा व्यापक हो गया अथवा 'शब्द' भी 'शब्द' शब्द का अर्थ है इसलिए अर्थत्व शब्द में भी चला गया; अत: अर्थत्व और वाच्यत्व धर्मों में से कोई भी धर्म किसी का न व्यापक रहा न व्याप्य; वे दोनों समकक्ष धर्म बन गये। इसलिए जैसे 'जल' का 'सलिल' भेद नहीं माना जा सकता; उसी तरह अर्थ का इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा गया है कि अर्थत्व वाच्यादि धर्म की का अर्थ है वह सनी वाच्य नहीं है । गङ्गा शब्द का लक्ष्यार्थ होने के नहीं है। अतः अर्थव की अपेक्षा वाच्यत्व व्याप्य धर्म हुआ और इसलिए अर्थ का विभाग वाच्य रूप में किया जा सकता है । इसी तरह गङ्गा शब्द के जो-जो अर्थ हैं, वे सभी लक्ष्य नहीं है। प्रवाह भी गङ्गा शब्दार्थ है परन्तु वह लक्ष्यार्थ नहीं हैं ।
वाच्यत्वादि भेद नहीं माना जाना चाहिए'
अपेक्षा व्यापक है क्योंकि जो-जो गङ्गा शब्द कारण तीर भी अर्थ है, परन्तु वह वाच्यार्थ
इस तरह लक्ष्यत्व भी अर्थव का व्याप्य ध सिद्ध होता है। यदि ऐसी व्याप्ति माने कि 'जहाँ-जहाँ गङ्गा- शब्दार्थत्व है; वहाँ-वहाँ व्यञ्जकता है' तो व्यभिचार नहीं होगा; क्योंकि गङ्गा शब्द के जितने अर्थ हैं प्रवाह ( वाच्य ), तीर (लक्ष्य) और शीतत्व-पावनत्वातिशय 'व्यङ्गय' सभी व्यञ्जक हो सकते हैं । जहाँ गङ्गा प्रवाह का वर्णन होगा (जैसे गङ्गा-लहरी में ) वहीं वाच्यार्थ भाव ( भक्ति) का व्यञ्जक है । "गङ्गायां घोष: " में तीररूप लक्ष्यार्थं शीतत्वपावनत्व का व्यञ्जक है ही । शीतत्व-पावनत्वादि भी कहीं किसी अर्थ का व्यञ्जक हो सकता है । जैसे यहाँ शीतत्व-पावनत्वातिशय है; इसलिए गर्मी में यही रहेंगे और भगवान् की उपासना करेगें आदि। इस तरह व्यञ्जकत्व और अर्थत्व में व्याप्ति होने से यद्यपि कोई भी धर्म व्यापक नहीं हुआ; किन्तु व्यञ्जक तो शब्द भी होता