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द्वितीय उल्लासः व्यतिरेकानुविधायित्वाइ व्यञ्जकत्वमिति वृत्त्याश्रयत्वेन तद्विभागप्राथम्यमनवद्यमिति न सर्वार्थव्यक्तेwञ्जकत्वम्, अपि तु वक्तृबोद्धव्यादिसहकारिविशेषविशिष्टार्थव्यक्तेरेवेत्यत उक्तं 'प्रायश' इति ।
__ननु वृत्त्याश्रयविभागे प्रक्रान्ते कस्यचिदर्थस्यापि व्यञ्जनारूपवृत्त्याश्रयत्वमिति तस्मिन् विभजनीये तदन्यवाच्यादीनां विभजनमभुक्तवान्तिमनुहरतीति, अत आह-सर्वेषामिति, सर्वशब्दोऽत्र पूर्वप्रक्रान्तवाच्यादित्रयपरामर्शकः, तथा च व्यञ्जकत्वमपि वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयानामर्थानां न तु व्यञ्जकनामा तद्भिन्नोऽर्थः कश्चिदस्तीति स एव व्यञ्जकविभाग इति भावः ।
___ अथवा ननु वृत्त्याश्रयत्वं वाच्यलक्ष्ययोरेव, व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वेऽनवस्थापत्तिरिति कथं वाच्यादय इत्यनेन व्यङ्गयग्रहणमित्यत आह-सर्वेषामिति । तथा च व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वमस्त्ये
कारिका में 'प्रायश:' पद के निवेश का प्रयोजन बताते हए कहते हैं कि- 'केवल अर्थ की उपस्थिति ही व्यङ्गय के लिए पर्याप्त नहीं होती; किन्तु व्यङ्गय की उपस्थिति के लिए विशेष प्रकार के बक्ता, श्रोता, काकु, प्रकरण आदि की सहायता भी अपेक्षित होती है।' इसी आशय से 'प्रायशः' शब्द का प्रयोग किया गया है । अर्थात् सभी अर्थ की अभिव्यक्ति को व्यजक नहीं मान सकते किन्तु वक्ता और श्रोता आदि के सहकार के कारण विशेष प्रकार की अर्थोपस्थिति हो व्यञ्जक हो सकती है।
'ननु वृत्त्याश्रयविभागे' इत्यादि (टीका)
कारिका में 'सर्वेषां' पद के निवेश का प्रयोजन बताने के उद्देश्य से पहले प्रश्न करते हैं कि-वृत्त्याश्रय के विभाग के इस प्रकरण में यदि कोई अर्थ जो वक्त-बोद्धव्य आदि के सहकार से सम्पन्न होकर व्यजक हो रहा है तो व्यजनारूप-वृत्ति का आश्रय होने के कारण उसका विभाग करना तो उचित है, किन्तु उस अर्थ से भिन्न वाच्यलक्ष्यादि का विभाग करना तो 'अभुक्त-वान्ति' की तरह निमल और प्रकरण-विरुद्ध जैसा लगता है। जैसे वमन (उल्टी) में वही चीज गिरती है; जो खायी गयी हो, यदि वमन में कोई ऐसी चीज गिरे जो खायी न गयी हो तो चिन्ता का विषय बन जायेगा, उसी प्रकार अाकरणिक वस्तु (वाच्य आदि) का निरूपण यहां चिन्तनीय बन जायगा ऐसा न हो, इसीलिए कारिका में 'सर्वेषाम्' पद का निवेश किया गया है। यहाँ 'सर्व' शब्द पूर्व वणित, प्रकरणागत वाच्य, लक्ष्य
और व्यङ्गच तीनों का परामर्शक (बोधक) है। इस तरह यह ध्वनित हुआ कि वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय ये सभी प्रकार के अर्थ भी व्यञ्जक हो सकते हैं । किन्तु ये जिन अर्थों के व्यञ्जक होंगे; वे अर्थ भी व्यञ्जक ही कहलायेंगे । वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय अर्थों की व्यजकता से यह नहीं समझना चाहिए कि व्यजक नाम का कोई भिन्न अर्थ वहाँ आ गया। जो वाच्च या जो लक्ष्य या जो व्यङ्गय, व्यञ्जक बन गया वह वाच्य या लक्ष्य या व्यङ्गय से अतिरिक्त किसी अन्य नाम से अभिहित होने का अधिकारी नहीं बन गया । इसलिए व्यञ्जक का विभाग वही रहेगा; कोई नया नहीं बनेगा।
'अथवा ननु वृत्त्याश्रयत्वम्' इत्यादि (टीका)
अथवा वृत्ति (ब्धजना) का आश्रय वाच्य या लक्ष्य अर्थ को ही मानना चाहिए व्यङ्गय को भी (व्यञ्जनावृत्ति का) आश्रय मानकर व्यजक मानने पर अनवस्था-दोष आजायगा, क्योंकि एक व्यङ्गय को दूसरे व्यङ्गय का, दूसरे को तीसरे और तीसरे को चतुर्थ व्यङ्गय का व्यञ्जक मानते जायेंगे। इस प्रकार अनन्त व्यङ्गयव्यञ्जकों की कल्पना की समाप्ति.ही नहीं हो पायेगी। इसलिए "वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः" में वाच्यादि पद से व्यङ्ग्य का ग्रहण कैसे हो सकेगा? इस प्रश्न के समाधान में ग्रन्थकारने यह कारिका लिखी है, यह भी माना जा सकता है। इस कारिका ने यह बता दिया कि सभी प्रकार के (वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय) अर्थ व्यञ्जक हो सकते हैं और उदाहरण