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द्वितीय उल्लासः
[सू. ८] सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां व्यजकत्वमपोष्यते ।
वादिन इत्यत्र वदन्तीति शेषः । अग्रे वाच्यव्यञ्जकतायां वाक्यार्थस्यैवोदाहरणादत्रागौरवं व्यञ्जनानीचित्यादिति व्याचक्षते ?
नन्वर्थस्यापि व्यञ्जनावृत्त्याश्रयत्वेन तद्विभागप्राथम्यमयुक्तं शब्दोपस्थापितार्थस्यैव व्यञ्जकत्वं न पूनरनुमानाद्यपस्थापितस्यापीति शब्दानामावश्यकत्वात् तद व्यञ्जनयवोपपत्तौ किमर्थव्यञ्जनास्वीकारेणेत्यतः ।
(सूत्र-८) 'सर्वेषा'मिति-एतच्छब्दविशेषणं सर्वेषामर्थानामिति च व्यधिकरणे षष्ठ्यौ , तेनैक
इसके विपरीत आगे (सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमपीष्यते) इसकी वृत्ति में वाच्य-ठाजकता के उदाहरण में वाक्यार्थ को ही वाच्य मानकर उदाहरण दिया गया है । अर्थात् वाच्य-व्यजकता का जो उदाहरण दिया गया है; वहाँ वास्तव में वाक्यार्थ-
व्य कता ही है। इससे सिद्ध होता है कि मम्मट वाक्यार्थ को वाच्य ही मानते थे। इस तरह (अन्विताभिधानवाद में) जो गौरव दिखाया गया था; वह नहीं है। यदि गौरव होता तो मम्मट वाक्यार्थव्यजकता को "वाच्यस्य यथा' शब्द के द्वारा वाच्य-व्यञ्जना का उदाहरण कैसे देते ?
इस तरह प्रदीपकार ने 'अन्विताभिधानवाद' को ही अधिक उक्ति संगत और मम्मटाभिमत स्वीकार किया है। अवसर संगति ('नन्वर्थस्यापी'ति)
- अर्थ भी व्यञ्जना-बत्ति का आश्रय है। इसलिए अर्थ-विभाग को जो प्राथमिकता दी गयी है; वह अयुक्त जान पड़ती है। शब्द से उपस्थापित अर्थ को ही व्यजक मान सकते हैं, अनुमान या अर्थापत्ति के द्वारा उपस्थापित अर्थ को व्यङजक नहीं मान सकते हैं, इसलिए व्यजकता के उदाहरणों में जब सब जगह शब्द का रहना अनिवार्य ही है; तव शाब्दी व्यञ्जना से ही काम बन जायगा, आर्थी व्यजना या अर्थ-व्यञ्जना मानना व्यर्थ है इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैंत्रिविध शब्दार्थों को व्यञ्जकता
. "सर्वेषाम् प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमधीष्यते" इसका तात्पर्य भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने अलग-अलग ढंग से लिखा है। 'प्रदीपकार" ने कारिका में आये हुए 'अपि' शब्द का सम्बन्ध “अर्थानाम" के साथ करके अर्थ कियाहै'सभी प्रकार के अर्थ (वाच्य, लक्ष्य, और व्यङ्गय) भी व्यजक हो सकते हैं । सभी प्रकार के शब्द (वाचक, लाक्षणिक
और व्यजक) तो व्यजक होते ही हैं, अर्थ भी व्यञ्जक होते है ।' उद्योतकार ने 'अपि' को यथा स्थान रहने दिया है। उनके मत में कारिका का अर्थ होगा- 'सभी प्रकार के अर्थों में व्यञ्जकता भी होती है। व्यञ्जकता की अवस्था में भी शब्द वाचक और लाक्षाणिक बने रहते हैं। ऐसा नहीं कि जो शब्द या अर्थ व्यजक बन गया वह वाचक या लाक्षणिक नहीं रहा।'
प्रस्तुत टीकाकार ने "सर्वेषाम्" को शब्द का विशेषण माना है और 'सर्वेषाम्' और 'अर्थानाम्' दोनों जगह षष्ठी को ब्यधिकरण में षष्ठी स्वीकार किया है। इस तरह इसका अर्थ हआ कि-'सभी शब्दों के अर्थात् पर्याय रूप में स्वीकृत सभी शब्दों के द्वारा उपस्थापित (प्रतीत) होने वाले जितने अर्थ हैं उनकी भी व्यजकता ग्रन्थकार को अभीष्ट है। शाब्दी और प्रार्थी व्यञ्जना
तात्पर्य यह है कि व्यञ्जना दो प्रकार की होती है १-~-शाब्दी व्यञ्जना जो किसी शब्द-विशेष के रहने पर रहती है और उसके अभाव में नहीं रहती है । जैसे "उन्नत –पयोधर" यहाँ पयोधर शब्द मेघ वाचक है और 'स्तन'