________________
काव्यप्रकाशः
वाच्यम्, शक्यान्वयत्वस्य स्वरूपसतो नियामकत्वात्, अन्यथा तवाप्यप्रतीकारादिति । प्रदीपकृतस्तु तात्पर्यार्थोऽपोत्यादीनामन्यथाऽर्थमामनन्ति, तथाहि--
ननु वृत्ति प्रतिपाद्यवाच्याद्यर्थववृत्त्यप्रतिपाद्योऽपि वाक्यार्थस्तात्पर्यापरनामधेयोऽस्ति स कुतो नोक्तः ?
___ अत आह-तात्पर्यार्थोऽपोति । केषुचिन्मते, न तु सर्वेषु, केषां तन्मतम् ? इत्यपेक्षायामाह[मूलम् ] 'आकाङ्क्षादीत्याद्यभिहितान्वयवादिनां मतमित्यन्तेन ।' अत एव केषुचिदिति सप्तमीबहुवचनं षष्ठीबहुवचनार्थतया व्याख्यातं वादिनामित्यनेन, अत एवान्विताभिधानवादिन इत्यत्र बहुवचनम् 'अपदार्थोऽपि' पदवृत्त्यप्रतिपाद्योऽपि, तथा चान्वयस्तेषां मते पदवृत्तिप्रतिपाद्यो न भवतीति, स च वाच्यादिभिन्नो वृत्त्यप्रतिपाद्य इत्यर्थः ।
कथं नैतत् सर्वेषां मतम् ? इत्यपेक्षायामाह 'वाच्य एवेति । तथा च वृत्त्यप्रतिपाद्योऽर्थो नास्त्येव वाक्यार्थस्याप्यभिधारूपवृत्तिप्रतिपाद्यतेवेति न तन्मते पृथक् तस्य विभाग इत्याशयः । अन्विताभिधान
प्रदीपकार ने "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इत्यादि का कुछ और अर्थ माना है। वह इस प्रकार है 'वृत्ति (अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना) से प्रतिपादित अर्थ-वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय-की तरह वृत्ति से अप्रतिपादित अर्थ भी वाक्यार्थ के रूप में प्रतीत होता हैं । उसी का दूसरा नाम तात्पर्यार्थ है । वह (अर्थ भेद में) क्यों नहीं कहा गया ? अर्थात् उसे अर्थ के प्रकारों में क्यों नहीं गिना गया ? इसलिए कहते हैं तात्पर्यार्थोऽपि"।
सूत्र में 'केषुचित्' कहा गया है जिसका तात्पर्य है किन्हीं के मत में । अर्थ का एक भेद तात्पर्यार्थ भी है, सबके मत में नहीं। वह मत किनका है इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वृत्ति कार ने 'आकांक्षा' यहाँ से लेकर "अभिहितान्वयवादिनां मतम्" यहाँ तक का ग्रन्थ लिखा है।
इसीलिए कारिका में 'केषुचित्' जो सप्तनी बहुवचन है, उसको षष्ठीबहुवचनार्थक मानकर व्याख्या करते हए वत्तिकार ने लिखा है "अभिहित न्वयवादिनाम्" और इसीलिए "अन्विताभिधानवादिनः" यहाँ भी (प्रथमा) बहुवचन ही प्रयुक्त हुआ है। बात यह है कि अभिहितान्वयवाद में अन्वय (संसर्ग) पदार्थ नहीं है, इसीलिए उसे अपदार्थ कहा गया है। यहाँ अपदार्थ का अर्थ है पद की वृत्ति (अभिधा आदि) से अप्रतिपाद्य । उनके (अभिहितान्वयवादियों के) मत में अन्वय पदवृत्ति (अभिधादि से) प्रतीतियोग्य नहीं माना गया है। (इसलिए) वह (उनके मत में) वाच्य लक्ष्यादि से भिन्न है; क्योंकि वह वृत्ति से प्रतिपाद्य नहीं है।
यह मत सभी का क्यों नहीं है? इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए कहते हैं-'वाच्य एव' इत्यादि । अर्थात् मीमांसकों में भी प्रभाकर गुरु आदि का एक दल ऐसा है, जिन्हें अन्विताभिधानवादी कहते हैं वे अन्वित का ही अभिधान मानते हैं। इसलिए उनके मत में वाक्यार्थ वाच्य ही है, न कि तात्पर्यार्थ । इसलिए अर्थ का चौथा भेदतात्पर्यार्थ-मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यह मत सबका नहीं माना जा सकता। प्रदीपकार का आशय यह है कि शाब्दबोध में भासित होनेवाला कोई अर्थ ऐसा नहीं है जो वृत्ति से प्रतिपादित न होता हो। वाक्यार्थ की भी अभिधावति से ही प्रतीति होती है; इसलिए वाक्यार्थ भी वाच्य ही है। अत: वाक्यार्थ को अर्थ का चौथा भेदतात्पर्यार्थ मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
'अन्विताभिधानवादिनः" के आगे 'वदन्ति' इस क्रिया का शेष या अध्याहार मानना चाहिए। इस तरह यहां भी बहवचन के आजाने से पूर्वमत के सम्मान का जो तात्पर्य निकाला गया था; वह भी निर्मूल प्रमाणित हो गया। दोनों मतों के स्त्रीकर्ताओं के लिए बहवचन के प्रयोग के कारण किस मत की ओर मम्मट का अधिक झकाब है। यह सिद्ध नहीं होता। बहवचन के प्रयोग को आधार बनाकर किसी एकमत को मम्मट का अपना मत नहीं बताया जा सकता।