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द्वितीय उल्लास:
किञ्च व्यक्तेरवाच्यत्वे तदन्वयवाच्यत्वानुपपत्तिः क्रियाकारकपदयोः प्रत्येकमितरान्वितस्वार्थबोधकत्वे वाक्यार्थद्वयधीप्रसङ्गश्च । अन्वये शक्तौ पदात्तस्यापि स्मरणे शाब्दानुभवस्य गृहीतविषयत्वेन शब्दस्यागृहीतग्राहित्वलक्षणप्रामाण्याभावप्रसङ्गश्च। न चाशक्यानुभवेऽतिप्रसङ्गादन्वयेऽपि शक्तिरिति
अधिक महत्त्व देते हैं, यह भी द्योतित हो गया। पूर्वमत में “वादिनाम्" में बहुवचन और इस मत में 'वादिनः' में एकवचन के प्रयोग ने स्पष्ट कर दिया कि उत्तर मत मम्मट सम्मत नहीं है, क्योंकि इस मत में गौरव होता है (गौरव की प्रक्रिया अभी दिखाई गयी है)।
गौरव का कारण 'अनन्यलभ्यत्वाभाव:' दूसरे से लभ्य नहीं होने का अभाव है अर्थात् अन्य लभ्यत्व । गुरु प्रभाकर के मत में जाति में शक्ति रखनेवाले पदों से ही जैसे व्यक्ति का बोध (माक्षेप से) हो जाता है, उसी तरह पदान्वय-बोध भी आकांक्षादि से हो जायगा । अत: अन्वित में शक्ति मानना और फिर अन्वित-विशेष के बोध के लिए आकांक्षादि के सहकार की कल्पना करना गौरवग्रस्त है।
___ तात्पर्य यह है कि जैसे मीमांसक प्रभाकर शब्द का अर्थ जाति मानते हैं। इसलिए उनके मत में 'गो' पद का अर्थ गो जाति होता है। जातिरूप अर्थ "गौः पशुः" यहाँ तो ठीक उतरता है किन्तु "गामानय” यहाँ ठीक नहीं उतरता, क्योंकि पूरी गोजाति का लाना न सम्भव है और वक्ता का तात्पर्य ही वैसा है। वह तो एक गाय लाने की विवक्षा से ही इस वाक्य का प्रयोग करता है। इसलिए गुरु प्रभाकर के मत में व्यक्ति का बोध आक्षेप से होता है । जब गुरु प्रभाकर के मत में जाति अर्थ बताने में शक्त पद से व्यक्ति का बोध हो सकता है तो अपने-अपने अर्थों में शक्तपद से अन्वयबोध भी सम्भव है। इस तरह अन्वयबोध भी तात्पर्यवत्ति के बिना ही हो जायगा। तात्पर्यवत्ति और तात्पर्यार्थ के स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है।
इतना ही नहीं, व्यक्ति को शब्दार्थ नहीं मानने पर उस (व्यक्ति) के अन्वय को वाच्य नहीं माना जा सकता। अन्वित में शक्ति मानते हुए भी अन्विताभिधानवादी विशेष रूप से गवानयन में शक्ति नहीं मानते है; किन्तु सामान्य रूप से इतरान्वय में शक्ति मानते हैं विशेष रूप में अर्थात् गवानयन में शक्ति मानने से अश्वानयन, वृषभानयन आदि अनन्त शक्ति मानने का गौरव होगा। परन्तु यहाँ यह प्रश्न उठता है कि वाक्य में किया और कारक दोनों पद होते हैं तो क्या कारकान्वित क्रिया में शक्ति माननी चाहिए या क्रियान्वित कारक में? यदि क्रिया को इतरपदार्थ (कारक) से अन्वित स्वार्थ (क्रियार्थ) बोधक माने तो विनिगमना (साधक और बाधक प्रमाणों) के अभाव में कारक को भी इतरपदार्थ (क्रियापदार्थ) से अन्वित स्वार्थ (कारकार्थ) बोधक मानना पडेगा। ऐसी स्थिति में दो-दो वाक्यार्थबोध होंगे-एक कारकान्वित क्रियार्थप्रकारक शाब्दवोध होगा और दूसरा क्रियान्वित कारकप्रकारक, जोकि अनुभव विरुद्ध है । अन्वय में (पद की शक्ति) मानने पर एक दोष और यह होगा कि पद से उसका (अन्वित पदार्थ का) भी स्मरण हो जायगा। ऐसी स्थिति में शब्द से प्राप्त ज्ञान (शाब्दबोध) को पूर्वगृहीत मानना पड़ेगा ऐसा स्वीकार करने पर शब्द को अगृहीत (अज्ञातग्राहित्व) बोधक होने के कारण जो प्रामाण्य माना गया है; उसका भङ्ग हो जायगा।
यदि यह कहें कि अन्वय में शक्ति नहीं मानने पर ऐसे अनुभव में जो शक्यार्थ नहीं है वहाँ अतिव्याप्ति हो जायगी जैसे "ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः" अर्थात हे ब्राह्मण, तुझे पुत्र हुआ है, यहाँ प्रसन्नतारूप अनुभव को कोई शक्यार्थ नहीं मानता; परन्तु अन्विताभिधान में उसे भी शक्यार्थ मानना पड़ेगा, इसलिए अतिव्याप्ति-दोष के निवारण के लिए अन्वय में भी शक्ति स्वीकार करनी चाहिए तो यह कथन उचित नहीं होगा, क्योंकि स्वरूप-सम्बन्ध से शक्यान्वय को अशक्यान्वय का निवर्तक माना गया है। अर्थात् अन्वित शक्यार्थों का बोध ऐसे बोध को शब्दजन्य मानने में बाधक होगा जो कि शक्यार्थ नहीं है और किसी रूप में अनुभव में भासित होते हैं। ऐसा नियम अभिहितान्वयवाद में भी मानना आवश्यक है अन्यथा अशक्यानुभव को वाक्यार्थ नहीं मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं रह जाता है।