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काव्यप्रकाशः
तथाहि अयं भावः--अन्विते शक्तिमङ्गीकुर्वताऽपीतरान्विते शक्तिरङ्गीकार्या, न त्वानयनाद्यन्विते, शक्त्यानन्त्यप्रसङ्गात् । तथा च विशेषोपस्थितिराकाङ्क्षादि-सहकृतात् पदादेवेति वाच्यम्, एवं च किमन्वये शक्तिकल्पनया प्रकृतसहकारिविशिष्टपदादेव तदुपस्थितेरिति । वाच्य एवेति । न्यायमते यो वाक्यार्थः स वाच्य एव पदार्थ एवेत्यर्थः, वादिन इत्यत्र मतमित्यनूषजनीयम्, वदन्तीत्यध्याहारापेक्षया शीघ्रोपस्थितिकत्वात्, तेनैकवचनेन गौरवं द्योत्यते तद्बीजं चानन्यलभ्यत्वाभावः, गुरुनये जातिशक्तात् पदादेव व्यक्तिबोधवत् तदन्वयबोधसम्भवात् । आदि वाक्यों और व्यवहारों को देखकर वह पद और पदार्थों के ग्रहण और त्याग से देवदत्तादि पदों का अलग-अलग अर्थ जानता है। इस प्रकार व्यवहार से प्राप्त होने वाला यह संकेतग्रह हमेशा केवल-पदार्थ' में नहीं: अपित अन्वित. पदार्थ में ही होता है। इस तरह जब केवल अर्थात् अनन्वित-पदार्थ में संकेतग्रह ही नहीं होता तो 'केवल' अर्थात अनन्वित पदार्थ को उपस्थिति भी नहीं होती। इसलिए अन्वित का ही अभिधान अर्थात् अभिधा से अन्वित-पदार्थों की ही उपस्थिति मानना, उचित है। इस तरह अन्विताभिधानवादी अभिहितान्वयवाद के खण्डन तथा अपने मत के मण्डन में प्रमाण उपस्थित करते हैं।
__टीकाकार ने बताया है कि "अभिहितान्वययादिनां मतम्" में बहुवचन के प्रयोग के कारण मम्मट अभिहितास्वयवाद को अन्विताभिधानवाद से अधिक समीचीन मानते थे यह प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि अन्वित में शक्ति मानने वालों के मत में भी (सामान्यरूपेण) इतर-पदार्थान्वित में ही शक्ति माननी होगी; विशेष रूप से आनयनादि पदार्थ से अन्वित में शक्ति नहीं मान सकते; क्योंकि वैसा मानने पर अनन्त शक्ति की कल्पना करने में अनावश्यक गौरव होगा। फिर तो 'गामानय' में गवादि विशेष पदार्थ की उपस्थिति के लिए आकांक्षादि की ही शरण लेनी पड़ेगी अर्थात् यह मानना पड़ेगा कि आकांक्षादि की सहायता से सम्पन्न पद से ही गवादिरूप विशेष पदार्थों की उपस्थिति 'गामानय' इत्यादि स्थल में हो जायगी। ऐसी स्थिति में भी जब आकांक्षादि की सहायता की शरण लेना अनिवार्य ही होता है तो 'अन्वित' में शक्ति कल्पना व्यर्थ ही है; क्योंकि अनन्वित में शक्ति की कल्पना करने वाले कुमारिल भद्र को भी आकांक्षादि की सहायता द्वारा पदों से विशेष की उपस्थिति होती है । इस कल्पना में आकांक्षादि के सहकार की अपेक्षा होती ही है ।
एवञ्च (इस तरह) अन्वय में शक्ति कल्पना से क्या (लाभ) ? पहले ही अभिहितान्वयवाद के अनुसार आकांक्षादिसहकृत पद से वाक्यार्थ की उपस्थिति हो ही जायगी। अर्थात् अन्त में आकांक्षादि के सहकार की कल्पना करने की अपेक्षा पहले ही उसके सहकार को स्वीकार कर लेना चाहिए। अन्विताभिधानवादी के मत का उल्लेख करते हुए लिखते हैं 'वाच्य एव वाक्यार्थः' । अर्थात् अभिधा अन्वित का बोध कराती है। इसलिए अन्वित पदार्थरूप वाक्यार्थ ही वाच्य है । (इस मत का विस्तृत विवरण पीछे दिया गया है) टोकार्थ
न्याय के मत में जो वाक्यार्थ है वह वाच्य ही है अर्थात पदार्थ ही है । "अन्विताभिधानवादिनः' यहाँ 'मतम्' की अनुवन्ति माननी चाहिए। यद्यपि 'अन्विताभिधानवादिनः" को प्रथमा बहुवचन मानकर 'वदन्ति' का अध्याहार करके अन्विताभिधानवादी ऐसा कहते हैं, ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है तथापि पूर्ववाक्य में “इति अभिहितान्वयवादिनां मतम्' में 'मतम्' पद के आने से 'मतम्' को उपस्थिति 'बदन्ति' के अध्याहार की अपेक्षा शीघ्र होने से उस पद को प्रथमा-बहुवचन नहीं माना गया और न 'वदन्ति' का अध्याहार किया गया। पाठक के संस्कार में पूर्ववाक्य का 'मतम्' पहले से ही विद्यमान था। इसलिए वदन्ति' के अध्य हार के लिए आकांक्षा ही नहीं जगी। "अन्विताभिधानवादिनः" के आगे 'मतम्' शब्द का सम्बन्ध मानने से एक लाभ यह भी हआ कि इससे मम्मट किस मत को