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मध्नामि कोरवशतं समरे न कोपात्, दुःशासनस्य रुधिरं न पिबाम्युरस्तः। सञ्चूर्णयामि गदया न सुयोधनोरू, सन्धि करोतु भवतां नृपतिः पणेन ।
यह दिया है।
यह पद्य दुर्योधन आदि अशेष कौरवों के क्षय की प्रतिज्ञा किए हुए भीम की उक्ति है। यहाँ पर अशेष कौरवविनाश की प्रतिज्ञा करनेवाले भीम की 'न मथ्नामि' यह उक्ति प्रसङ्गत-सी है। इसलिए 'न मनामि' यहाँ पर काकु के द्वारा 'अवश्य मथन करता है ऐसा व्यङ्गय अर्थ निकाल कर वाच्यार्थ की उपपत्ति की जाती है। यहाँ काकुव्यङ्ग्य 'अवश्य मथन करता हूँ' यह वाच्यार्थ साधक होने के कारण गुणीभूतव्यङ्ग्य का उदाहरण हो जाता है। 'तथाभूतां दृष्ट्वा' पद्य में 'गुरुः प्रचापि खेदं न भजति ?' इस तरह का प्रश्नवाक्य उपस्थित कर के ही काकु, वाच्य सिद्धि का प्रङ्ग हो सकता है न कि स्वतः । इसलिए इसे गुरणीभूतव्यङ्ग्य अर्थात् मध्यमकाल नहीं कह सकते हैं।
यहां पर 'सहदेव! गुरुः खेदं मयि जानातीति प्रश्नोपक्रमे श्लोकावतारादत्रापि किमिति गुरुर्मयि खेदं भजति न कुरुध्विति प्रश्नपरत्वे काक्वा ग्राहिते प्रकृतवाक्यार्थादेव' (पृ० १५७) इत्यादि शब्दों से 'मधुमती' काव्यप्रकाशटीकाकार, रवि प्राचार्य, सुबुद्धिमिश्र तथा गोविन्दठक्कुर प्रभृति का मतखण्डन करते हुए 'वयं तु दयितं दृष्ट्वा लज्जा ते ललने [इत्यत्र] पयिर्तववनस्य लज्जाकारणत्वावगमवत्" इति भावः ।' (पृ० १५३) इस ग्रन्थ से स्वमत-प्रदर्शन किया है।
उसका सार यह है कि 'दयित दृष्ट्वा लज्जा ते ललने !' यहाँ भले ही दयितदर्शन लज्जा का कारण हो सकता है। लेकिन 'तयाभूतां दृष्ट्वा ' इस स्थल में ताश द्रौपदी का दर्शन भीम के ऊपर होनेवाले क्रोध का हेतु है न कि दुर्योधन आदि कौरवों के ऊपर होनेवाले क्रोध का हेतु है। इस तरह का अर्थ अयोग्य होने के कारण ताश द्रौपदी का दर्शन भीम के प्रति किए जाने वाले क्रोध का हेतु नहीं है अपितु वह कौरवों के प्रति होनेवाले क्रोध का हेतु है यही प्रर्थ पर्यवसित होता है।
'मयिन योग्यः खेवः' इस व्यङ्ग्य का 'मुझ पर होनेवाले क्रोध का हेतु तादृश द्रौपदी का दर्शन यह ठीक नहीं है अपितु कौरवों के प्रति होनेवाले क्रोध का ही हेतु होने योग्य है' ऐसा अभिप्राय लगना चाहिए। यह अर्थ काक से गम्य होता है। इसलिए यह अर्थ 'काकुव्यङ्य' है न कि उसका व्यञ्जक कोई वाच्यार्थ है। तब यह किस तरह अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है ? यह आशङ्का 'न च वाच्यसिद्धपङ्गमत्र काकु:' इस शब्द से प्रदर्शित की है। प्रागे जाकर 'भ्रातरं दृष्ट्वायं लज्जते न श्वसुरम्' इस वाक्य को सुनकर 'कुतः' यह प्रश्नवाक्य उपस्थित होने पर 'श्वसुर को देखकर लजाती है न कि भाई को देखकर लजाती है यह व्यङ्ग्य अर्थ जिस तरह वहाँ प्रतीत है उसी तरह यहाँ भी मझ पर क्रोध करना ठीक नहीं है अपितु कौरवों के प्रति क्रोध करना ही ठीक है' यह अर्थ व्यङ्ग्य होता है। इस इस अर्थ का व्यजक प्रथम अर्थ को मानना पड़ेगा, इस तरह समाधान किया है। यहाँ इनकी विचारधारा मधुमती. कार, सुबुद्धिमिश्र, गोविन्द ठक्कुर प्रभृति टीकाकारों की विचारधारा से सर्वथा स्वतन्त्र प्रतीत होती है। द्रष्टव्य (पृष्ठ १५२ से १५६) .
उपाध्यायजी की यह एक और विशेषता है कि ये "जब तक प्रत्येक शब्द का अभिप्रेत अर्थ न प्रतीत हो तबतक आगे बढ़कर गहराई की ओर जाना चाहिए" ऐसा सङ्कत पल-पल में करते दिखाई देते हैं। इसलिए कहीं कहीं शब्दखण्ड की तथा नैयायिक, वैशेषिक नियमों की चर्चा भी इन्होंने की है। जो कि आज के मृद्धिशाली विद्यार्थियों के लिए उतनी मावश्यक नहीं होगी। तथापि रहस्यजिज्ञासुओं के लिए इनका विचार अवश्य प्रमोद बढ़ाने वाला होगा।