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जारही थी उस समय उनके समक्ष काव्य-प्रकाश पर लगभग २५ से ३० टोकाएं बन चुकी थीं। स्वय उपाध्यायजी ने छह टीकाकारों का नामतः उल्लेख किया है जिनका प्रासङ्गिक परिचय इस प्रकार है
प्रथम और सबसे प्राचीन टीकाकार महामहोपाध्याय 'चण्डीदास' (१२७० ई०) हैं। इनका स्मरणदो-बार हा है। पहला प्रसंग है 'यहच्छात्मक उपाधि का व्याख्यान'। यहाँ म०म० चण्डीदास द्वारा अपनी टीका में 'डित्यादि शब्दानामन्त्यबुद्धिनि हाम्' इत्यादि वृत्ति का जो व्याख्यान किया गया है, उसके बारे में पू० उपाध्यायजी ने दो बातें कही हैं । १. 'चण्डीदासजी का यह मत युक्ति युक्त नहीं है और दूसरी है, २. मम्मट के ग्रन्थ से विरुद्ध होना। (देखिये पृ. ३६) । इसी प्रकार दूसरा प्रसंग है लक्षणा का। जहाँ 'गोर्वाहीकः' इस उदाहरण में उठाये गये गौणी लक्षणा के दो भेद ही क्यों माने गये ?' इस प्रश्न के उत्तर में चण्डीदासजी का विचार प्रस्तुत किया गया है, जिनमें लक्षणा तेन षविषा' इन (सूत्र १७) की संगति बिठाई है और वहाँ स्वयं कुछ न कहते हुए उपाध्यायजी ने प्रदीपकार द्वारा किया गया खण्डन ही उपस्थापित कर दिया है। (द० पृ०६७)
दूसरे टीकाकार प्रायः इसी काल के निकटवर्ती सुबुद्धिमिश्र का स्मरण हुआ है। श्रीमिश्र को टीका का नाम 'तत्वपरीक्षा' कहा जाता है। पू० उपाध्याय जी ने अपनी टीका में ग्यारह स्थलों पर इनका नाम-निर्देश किया है तथा कहीं-कहीं 'मिश्राः' कहकर ही सूचना किया है । व्यङ्गयार्थ के व्यञ्जकत्व के उदाहरण प्रसंग में 'पश्य निश्चल नि:स्पन्दा' इस आर्या की व्याख्या इन्होंने किस प्रकार की है, यह दिखाया है, (पृ० २३) किन्तु इस पर टीकाकार ने अपनी कोई टिप्पणी नहीं दी है जबकि संहृतक्रम की व्याख्या (पृ० ३६) में कुछ स्पष्टीकरण भी दिया है। गौरनुबन्ध्यः में निरुद्धा लक्षणा मान सकते हैं अथवा नहीं? इस प्रसंग में सुबुद्धिमिश्र के द्वारा किये गये फक्किकार्थ की चर्चा है तथा उसके सम्बन्ध में अपना वितर्क भी प्रस्तुत किया है। (पृ०६६) इसी प्रकार भट्टमत के सम्बन्ध में इनके द्वारा किया गया व्याख्यान (१० ६६) 'परामिधाने' इसके अर्थ में, (पृ० ८५) वहीं व्याख्यान की आलोचना में, 'न च शम्दः' को अवतरणिका में (पृ० ११२), 'गङ्गायां घोषः' से सम्बद्ध 'नापि गङ्गाशब्दः' इत्यादि की व्याख्या में, पृ० ११४), विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत का खण्डन करने के अवसर पर, (पृ० ११८), 'न काव्ये स्वरो विशेषप्रतीतिकृत' के स्पष्टीकरण में (पृ०१३७) तथा काकु के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना के उदाहरण--'तमामूतां दृष्ट्वा' इत्यादि पद्य के व्याख्यान (१०१५५) में सुबुद्धि मिश्र का उल्लेख हुया है। एक दो स्थानों पर जो केवल 'मिश्र' का उल्लेख है उसके सम्बन्ध में एक प्राशंका यह भी की जा सकती है कि ये 'रुचिकर मिश्र' अथवा 'रुचिमिश्र' रहे हों।
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तीसरे टीकाकार श्री परमानन्द चक्रवर्ती भट्टाचार्य हैं। ये गौडीय न्याय नय-प्रवीण थे और इनकी टीका को नाम 'विस्तारिका' है । उपाध्याय जी के प्रिय विषय के प्रतिपादक होने से उन्होंने अपनी टीका में पांचवार इनका स्मरण किया है। जिनमें सर्वप्रथम 'सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां० इत्यादि वें सूत्र की रचना काव्य लक्षण में प्रयुक्त 'सगुणो' पद के लिये ताल-मेल बिठाने के लिये हुई है' इस बात को पुष्ट करने के लिए इति परमानन्दप्रभृतयः कहकर स्मरण किया गया है (पृ०१५) आगे 'अपभ्रंश-शब्दानां वाचक-लाक्षणिकत्व-व्यवहाराभावेन शक्तिलक्षणयोरमावेन व्यानव बसिरति, परमातन्वः' (पृ० ३०-१) ऐसा उल्लेख करके इनके मत का खण्डन किया है। इसी प्रकार 'वृत्त्यन्यतर के द्वारा होनेवाले बोध में विरामदोष नहीं लग सकता' इस बात की पुष्टि में पृ० १२६ पर एवं १० १४४ में 'तयक्तो व्याचक: शब्दः' (सू० ११) की व्याख्या के प्रसंग में इनका स्मरण किया है । प्रर्थस्य ज्यञ्जकत्वे तब (प० १७२) इत्यादि (सूत्र २४) के कारिकांश की व्याख्या में केवल अर्थ व्यजक नहीं मानने का स्पष्टीकरण भी इनके और इनके प्रनयायी अन्य
प्राचार्यों के मत की प्रस्थापना के रूप में हमाहा
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