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प्राचार्य नाम एवं ग्रन्थ
उद्धरण स्थान
१. मणिकार - ( चिन्तामणिकार श्री गङ्गेग उपाध्याय) पृ० ५७ तथा ६२ २. पार्थसारथि मिश्र - ( मीमांसादर्शन के प्रतिपादक एवं ग्रन्थकार) पृ० ६५
३. महाभाष्यकार - ( व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि ) पृ० ४४, ४६
४. मण्डनमिश्र - (कुमारिल भट्टानुयायी, मीमांसक तथा ग्रन्थकार) पृ० ४६, ६५
५. मट्टम - ( मीमांसक कुमारिल भट्ट) पृ० ५०, ५३, ६९, ७१, ११८ तथा १२९
६. मीमांसकमत - पृ० ३४, ४५ ६५ तथा ६६
७. गुरुमय- ( मीमांसक प्रभाकर मिश्र) पृ० १०, ४६ तथा ७०
८. म्याथमत, न्यायादिनय तथा
९. नैयायिकमत - पृ० १०, २१, ३४, ३६, ५२, ५०, ११८, १४२ ।
१०. नव्य - पृ० ८७ तथा १२
११. वाक्यपदीय - (भर्तृहरि विरचित) पृ० ३६,
१२. बालङ्कारिक - पृ० ३१,
१३. जव: - ( प्रभाकर मिश्र की 'बृहती' पर 'ऋजुविमला' टीका) पृ० १८
१४. वैशेषिकमत - (वैशेषिक दर्शन सम्मत करणाव मत) पृ० ४२
१५. वैनाशिकादिमत भौर वैभाषिक मत - - (शून्यवादी बौद्धों का मत ) पू. ४६
इनके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर अन्य प्राचार्य 'इसि निबन्धारः पृ. १३८, प्राञ्चः ' तथा प्राचीनमते' पृ० - ३१, ५३, ११८, १४० तथा १५८, 'वृतिकृता' पृ० २१ एवं ' ग्रन्थकार' पृ० २६, ५८ तथा ६३ में संस्मृत हैं । कहींकहीं 'सर्वेषाम' पृ० १३, 'केचित्' पृ० २८, ७१,११५, १३५ तथा १५४, अन्ये तु' पू. ११३, १५२ और १६७, इतरे' पू० १५६, 'कश्चित् पृ० ६७, १६७ 'बहव:' ६५ मोर 'ववचित्' पृ० १६० १७० पदों के द्वारा भी प्रन्यान्य विद्वानों के अभिमत उपस्थापित हुए हैं जो कि टीका के महत्त्व की अभिवृद्धि में पूर्णरूपेण सहयोगी बने हैं ।
पू०
उपाध्यायजी द्वारा दिये गये अपने अभिमत
किसी विषय विशेष का खण्डन, मण्डन श्रथवा श्रालोचन कर देना ही टीकाकार के लिये पर्याप्त नहीं होता है, क्योंकि दोषदर्शन में पटु व्यक्ति तो बहुत-से मिल जाते हैं। किसी की स्थापना अथवा प्रतिपादना में 'ननु न च' करना श्रथवा उसे दोषपूर्णं बता देना भी सहज है किन्तु उन उन दोषों के सम्बन्ध में स्वयं का तर्कशुद्ध मत प्रस्तुत करना वस्तुतः एक अनिर्वचनीय साहस पूर्ण कार्य होता है । प्रस्तुत टीकाकार श्री उपाध्यायजी महाराज ने निर्भीकतापूर्वक प्रायः सभी स्थानों पर स्वयं का मत विचार दिया है, जो कि 'वस्तुनस्तु' पृ० १६, २१, ३६ 'वयं तु' पृ० १६, २२, ४३, ४७, ५४, ५५ ६६, ५, ८, १०१, १०३, १०४, ११२, १११, १२५, १२९, १३०, १४४, १४८, १५७ तथा १७३, 'प्रत्र बूम:' पृ० ७२, ६१, १२३, १३२ एवं १४१ 'युक्तमुत्पश्याम:' पृ०५, २७, ७९ घोर 'मम प्रतिभाति, पृ० १००, १३७, 'मदीयव्याख्यानपक्षे' १२६, 'भावमाकलयामः पृ० १५०, 'व्याचक्ष्महे' १३१ तथा 'समीचीनत्वं, मदुत्प्रेक्षितः पन्याः, urdu, प्रस्मन्मनीषोन्मिषति' इत्यादि कथन-प्रसङ्गों से ज्ञात होता है ।
इस प्रकार अपने सर्वविष दायित्व का निर्वाह करते हुए श्री उपाध्यायजी महाराज ने मर्थप्रकाशन की प्रमुख