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दि० २२-७-७४ को पू. मुनिश्री यशोविजयजी महाराज के शुभहस्त से भगवान् महावीराकी मूर्ति अर्पित करने की दृष्टि से आयोजित समारोह के निमित्त भारत के म०म० राष्ट्रपति श्री वी०वी० गिरि महोदय बालकेश्वर आदिनाथ जैन मन्दिर के दर्शन करके उपाश्रय में पधारे तब उपाश्रय में विराजमान ५० पू० प्राचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी म. तथा प०पू० मुनिराज श्री यशोविजय जी महाराज के दर्शन करने का लाभ लिया। उस समय पू० मुनिश्री द्वारा भव्य समारोह में मूर्ति समर्पित होने के पश्चात् प्रायः १० मिनिट तक आपने प्रासंगिक सम्बोधन किया था।
भाप जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के एक श्रद्धेय तथा लोकप्रिय साधु हैं तथापि अन्य सम्प्रदाय भी मापके प्रति बहुत सम्मान की भावना रखते हैं और जनेतर सम्प्रदाय भी आपकी वृत्ति-प्रवृत्ति की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं । मुनि श्री यशोविजय जी का नाम वस्तुत: प्राज यश मौर विजय का प्रतीक बन गया है।
विगत वर्ष पूज्यश्री का एक्सीडेण्ट हो जाने से हाथ में चोट आई तथा उसकी चिकित्सा के लिये विले पारले स्थित नाणावटी हॉस्पीटल में आपको रहना पड़ा। उस समय बम्बई के चारों सम्प्रदाय तथा समाज के अनेक अग्रणी एवं महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमन्त्री श्री शङ्करराव चव्हाण भी पाप की सुखशाता पूछने के लिये प्राये थे। इससे मुनिजी की लोकप्रियता का सहज प्राभास हो जाता है। इन्हीं दिनों में प्रानन्दमयी माता से मिलने का भी प्रसंग उपस्थित हुमा था और ऐसे ही अन्य अनेक सन्तों का समागम होता रहता है।
जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा घाटकोपर में स्थापित अभूतपूर्व २७ फुट के मूर्ति-शिल्प का जो निर्माण हुआ, उसमें मुनिजी की कलादृष्टि का प्रावश्यक योगदान हुआ है। बालकेश्वर में ऐसे ही अभूतपूर्व शिल्पों का निर्माण करवाया है, जिनमें श्री पद्मावतीजी, महावीर चौबीसी, विघ्नहर पादर्वनाथ मादि चिरस्मरणीय हैं। लोककल्याण की कामना
पूज्यश्री साहित्य के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट योगदान करने की भावना तो रखते ही है, साथ ही मुख्यरूप से वर्तमान पीढी के लाभ के लिए तथा जनसंघ के गौरव की अभिवृद्धि के लिए जनसंघ का सर्वांगीण सहयोग प्राप्त होता रहा तो चित्रकला और शिल्पकला के क्षेत्र में अनेक अभिनव सर्जन करने तथा कुछ न कुछ नई देन देने की भी भावना रखते हैं । जनसमाज, जनसंस्कृति और जनसाहित्य का विदेश में भी गौरव बढ़े, जैनधर्म का प्रचार एवं पर्याप्त विस्तार हो और आनेवाली पीढ़ी जैनधर्म में रस लेती रहे, इसके लिए प्राप सतत चिन्तनशील हैं और तदनुवूल नए-नए मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं।
पू० मुनिजी के इस सर्वतोमुखी विकास में प्रापके दादागुरु प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजयप्रतापसूरीश्वर जी महाराज तथा प्रापके गुरुवर्य प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि ने बहुत ही महत्वपूर्ण भाग लिया है। आज भी इन दोनों गुरुवयों की प्राप पर असीम कृपा है और वह आपको भविष्य में केवल भारतवर्ष के ही नहीं, अपित विश्व के एक प्रादर्श साहित्य-कलाप्रेमी साधु के रूप में महनीय स्थान प्राप्त कराएगी, ऐसी पूर्ण प्राशा है।
डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी