________________
१२२
उसी तरह 'तथा तद्व्यङ्ग्ययोतुं वहत्वायासातिशययोरपि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम्' इस शब्द से अकेली होकर' इतने बड़े जल से भरे घड़े को उठाना बहुत बड़ा प्रायास है इस तरह का व्यङ्ग्य भी चौर्यरतगोपनरूपी व्यङ्ग्यान्तर का व्यञ्जक हो सकता है।
यहाँ एक ही उदाहरण में १. 'वाच्यार्थघटित वाक्यार्थ, २. लक्ष्यार्थ प्रौर ३. ध्याइग्यार्थ ये तीनों अर्थ व्यंजक है ऐसा बताकर अपनी पूर्ण प्रतिभा का परिचय दिया है।
इसी तरह बोद्धव्यवैलक्षण्य से वाच्यार्थ व्यङ्ग्यार्थव्यंजक होता है। उदाहरण"प्रौन्निाप दौर्बल्यं .....॥ (पृ० १५२) इत्यादि है।
यहाँ पर बोद्धव्या को कालान्तरावगत दुःशीलरूपी अपराधवाली घोषित किया है। इसलिए बोद्धव्या दुःशीला दूती उस नायिका ने कामुक से उपभोग-कार्यसम्पादन किया है इस तरह का व्यङ्ग्य होता है। ..
यहाँ उपाध्यायजी ने "अत्र मम कृते इत्यस्य विपरीतलक्षणया स्वकृत इति मन्दागिन्या इत्यस्य माग्ववत्या इत्यर्थ लक्ष्यस्य व्यञ्जकत्वम, कामकोपभोगेन दतीकामकयोरपराषध्यञ्जने व्यङग्यस्यापि व्यजकत्वमाकलनीयम् ।' (पृ० १५२) इस शब्द से 'मम कृते' शब्द का अपने लिए 'मन्दमागिन्या:' शब्द का भाग्यवती लक्ष्यार्थ तथा 'स्वकामुकोपमोग' ये दोनों मिलकर दूती एवं स्वकामुक का अपराधरूपी व्यङ ग्यान्तर का व्यंजन कर सकते हैं।
यहां पर भी त्रिविध अर्थों में व्यङ्ग्यव्यञ्जकता उपाध्याय जी ने स्पष्ट की है। काकुवैलक्षण्य से व्यङ्ग्यार्थप्रतीति का उदाहरण
तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां० (पृ. १५२) इत्यादि
यह पद्य है।
यह पद्य 'वेणीसंहार' नाटक से प्राचार्य मम्मट ने उद्धृत किया है । भाव यह है कि "भरी हुई राजसभा में रजस्वला अवस्था में भी द्रुपद जैसे राजा की सुपुत्री द्रौपदी के बालों को पकड़ कर दुःशासन खींच रहा है और द्रौपदी व्याकुल होकर प्रतीकार करने के लिए हम लोगों का मुंह देख रही है । इस तरह की कातराक्षी द्रौपदी को देख कर भी, जङ्गल के बीच वल्कलधारी व्याधों के साथ निवास करके भी, विराट् राजा के घर रसोइया प्रादि का निकृष्ट कर्म सम्पादन कर किसी तरह गुप्तावास का समय व्यतीत कर के भी बड़े भाई युधिष्ठिर महाराज, उन दुर्योधन आदि कौरवों के प्रति क्रोध नहीं प्रकट करते हैं । केवल मेरे ऊपर ही क्रोध करना जानते हैं।" यह उक्ति भीम की है।
यहां 'नाद्यापि' इस शब्द में नर की जगह काकु है । इसलिए उस काकु के द्वारा 'मुझ पर क्रोध करना ठीक नहीं है। प्रत्युत उन दुर्योधन प्रादि कौरवों के प्रति ही क्रोध करना समुचित हैं। इस तरह का व्यङ्ग्य प्रतीत होता है।
यह उदाहरण ध्वनिकाव्य का है न कि गुरणीभूतव्यङ्ग्य (मध्यम काव्य) का । इस बात की प्रासङ्गिक चर्चा करते हुए स्वयम् प्राचार्य मम्मट ने यह सिद्धान्त प्रदर्शित किया है कि 'जहाँ व्यङ्ग्यार्थक्षेप से ही वाच्यार्थप्रतीति उपपन्न हो वहां वाच्यसिद्धयङ्गव्यङ्ग्य नाम का गुणीभूत अर्थात् मध्यम काव्य माना जाता है और उदाहरण