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१२१ । इस प्रकार प्रसङ्गोत्थान कर वाच्यादि के त्रिविधार्थ का प्रतिपादन करने के लिये 'मर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मक' तृतीय उल्लास का प्रारम्भ किया है । और कहा है कि
उक्त कारिका में जो 'प्रतिभाजुषाम्' पद का प्रयोग किया है। वहाँ प्रतिभा शब्द से वासना या नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा समझनी चाहिए और व्यक्ति शब्द से व्यञ्जना-वृत्ति समझनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि जहां वक्ता, बोद्धव्य आदि का वैशिष्ट्यरूपी सहकारीकारण विद्यमान होता है वहीं प्रतिभावान व्यक्तियों को व्यङ्ग्यार्थप्रतीति हुआ करती है। इसलिए अर्थमात्र व्यञ्जक होने पर भी सभी स्थलों में सभी को व्यङ्ग्यार्थ-प्रतीति की आपत्ति नहीं होती है।
इसलिये व्यङ्यानुमेयवादी शकुक और महिमभट्ट प्रादि का मत भी ठीक नहीं है। उनके मत में व्यङ्ग्य वस्तु, अलंकार और रसादि को अनुमेय स्वीकृत करने पर व्यङ ग्यार्थ प्रतीति के लिए कारणरूप से व्याप्तिज्ञान अपेक्षित होगा उसके विलम्ब से व्यङ्ग्यप्रतीति का विलम्ब स्वाभाविक हो जाए; किन्तु व्यङ्गयार्थ के साथ किसी भी अर्थ का साहचर्यग्रह आदि के प्रभाव में भी प्रतिभावानों को व्यङ्गयार्थप्रतीति देखी जाती है । इसलिए व्यङग्यों को अनुमेय मानकर व्यञ्जनावाद का खण्डन करना निरी मूर्खता ही है । इसी वस्तु को उपाध्यायजी महाराज ने 'तथा च वक्तवैशिष्ट्यादिज्ञानोत्थापितप्रतिमायामेव सत्यां व्यङग्यप्रतीतिः न तु व्याप्त्यादिज्ञानविलम्बे न विलम्ब इति नानुमानेनान्यथासिद्धिय॑जनाया इति भावः' (पृ० १४६) इस कथन द्वारा अनुमितिवाद से व्यञ्जनावाद को पृथक् बताते हुए व्यञ्जनाबाद में व्याप्तिज्ञान की निरपेक्षता और अनुमितिवाद में उसकी अपेक्षा दिखाई है।
वक्तृबोद्धव्यकाकूनां' इस कारिका में 'वक्तृ' शब्द से कवि अथवा कविनिबद्ध नायक प्रभति समझना चाहिए । 'बोद्धव्य' पद से बोधनीय पुरुष अथवा स्त्री समझनी चाहिये । 'काकु' शब्द से ध्वनिविकार का बोध होता है। 'प्रस्ताव' शब्द से प्रकरण, 'देश' शब्द से विजनवन, 'काल' शब्द से वसन्त प्रादि ऋतु की चेष्टा समझनी चाहिए। 'वाक्य' शब्द से साकाङक्ष्य पदसमूह और 'वाच्य' शब्द से शक्या समझना चाहिए। कविराज विश्वनाथ ने भी
'सवासनानां नाट्यादी रसस्यानुभवो भवेत् ।
निर्वासनास्तु रङ्गान्तर्वेश्मकुड्याश्मसंनिभाः ॥ (साहित्यदर्पण) इस पद्य से प्रतिभावानों को ही व्यङ्यार्थास्वाद का सौभाग्य बताया है। उनके मत में भी प्रतिभारूपी वासना से शुन्य पुरुष नाट्यशाला में बैठे रहने पर भी वे वहाँ के खम्भे आदि के समान रसास्वाद के अधिकारी नहीं
वक्ता के वैशिष्ट्य अर्थात् वैलक्षण्य से वाक्यार्थ व्यङ्ग्यव्यंजक होता है। उसका उदाहरण
प्रतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागताऽस्मि सखि | त्वरितम् ।
श्रमस्वेदसलिलनिःश्वासनिस्सहा विश्राम्यामि क्षणम् ॥ यह पद्य है । , यहां वक्त्री कामिनी का दुःशीलरूपी वलक्षण्य सामाजिकों को पहले से ज्ञात होने के कारण उनके लिए उस पद्य से चोरी की गई रति का गोपन व्यङ्गय होता है। यहाँ उपाध्याय जी महाराज ने 'प्रत्र जलपदं जलपूर्ण लाक्षरिएकं, गृहीत्वेति पदं स्वयमेवोत्थाप्य गृहीतत्वरूपान्तरसंक्रमितवाच्यमिति..."। (पृ० १५१) इत्यादि शब्द से "अकेली जलपर्ण घडे को उठाकर लाने से ही परिश्रम अधिक हा है और परिश्रम अधिक होने से लम्बी सांसे चल रही हैं। इस तरह का लक्ष्यार्थ भी चौर्यरत-गोपनरूपी व्यङ्ग्य अर्थ का व्यञ्जक है ऐसा स्वीकार किया है।