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२. संसर्ग सहित पदार्थ अभिधावृत्ति का विषय है। अभिधा के अतिरिक्त तात्पर्याख्या वृत्ति की कोई प्रावश्यकता नहीं है । (यह अन्विताभिधानवादी मिश्र का मत है । )
इस प्रकार हम इन दोनों के मतों की गणना इस रूप में कर सकते हैंमट्ट मत में- अमिधा-बाच्यार्थ । तात्पर्याख्या- वाच्यार्थ संसर्ग (तात्पर्याथं)। प्रमाकर मिश्र मत में-अभिषा-प्रन्वितपदार्थ (पदार्थ, तत्संसर्ग)।
इस प्रकार द्वितीय उल्लास के प्रस्तुत पालोच्य विषय के सम्बन्ध में टीकाकार पूज्य उपाध्यायजी ने व्यक्त किया है कि
"शब्दार्थ-निरूपण में शब्द की प्रधानता अर्थ की अपेक्षा अधिक है प्रत: पहले शब्द का और तदनन्तर अर्थ का निरूपण सुसंगत है.। लक्षणा अभिधा के अधीन होती है और व्यञ्जना दोनों के अधीन होती है। जैसे-अभिधामूला व्यञ्जना और लक्षणामूला व्यञ्जना। चमत्कृत का प्रतिपादन करने के लिये व्यञ्जनावाद की प्रावश्यकता होती है। यदि व्यञ्जनावाद को हम साहित्य से महिममट्टादि की भांति निकाल दें, तो यह कथमपि सम्भव नहीं है कि रसादि का मनुभव हो सके। विशेषकर अर्थविषयक चमत्कार के लिये व्यञ्जनावाद उतना ही आवश्यक है जितना कि तप्ति के लिये भोजन ।”
'यद्यपि एक ही शब्द वाचक, लक्षक और व्यञ्जक हो सकता है किन्तु इनका विभाग किस तरह होगा?' यह शङ्का हो सकती है तथापि 'सम्बन्धभेद से वाचक प्रादि तथा व्यञ्जक प्रादि की व्यवस्था करनी चाहिये।-सम्बन्ध भेदाद भेदमङ्गीकृत्य तथा विभागात्" इत्यादि । (टीका पृ० ३)।
अभिप्राय यह है कि-"जैसे एक ही व्यक्ति पाकक्रिया के सम्बन्ध से वाचक तथा अध्यापन प्रादि क्रिया के सम्बन्ध से अध्यापक प्रभति हो सकता है, उसी प्रकार वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्य अर्थ के सम्बन्ध से एक ही शब्द में वाचक, लक्षक तथा व्यञ्जक प्रादि का व्यवहार हो सकता है । अर्थात् उपाधि के भेद से विभाग उपपन्न हो सकता है।"
आचार्य मम्मट ने १. 'वाच्य २. लक्ष्य और ३. व्यङ्ग्य इन प्रत्येक के अर्थों को 'व्यजक' माना है। उसी प्रसंग में लक्ष्यार्थ व्यङ्ग्यार्थ का व्यञ्जक किस प्रकार हो सकता है इसका उदाहरण देते हुए 'साधयन्ती सखि! सुभग क्षणे क्षणे इत्यादि (पद्य ७५०२०) में-'मेरे प्रिय के साथ अनुचित सम्बन्ध करके तूने बड़ी शत्रता दिखाई है, इस प्रकार का लक्ष्यार्थ और प्रिय की ऐसी कामुकता एक महान् अपराध है'- ऐसा व्यंग्यार्थ व्यञ्जक होता है। इस सन्दर्भ में
__"तथा च नायमन्यत्रानुरक्तो वृथैव भवत्या मानवत्याऽयमुपतापितोऽनुनयमहतीति त्वद्वचनेनानुनयार्थ प्रेषितां त्वामेवोपभुक्तवानिति त्वयेदानीमपि चेतितव्यमिति व्यङ्ग्यत्वेन च मयाऽतः परमस्य मुखमपि न विलोकनीयं, मदनुनयाथ त्वयाऽपि न यतनीयमिति व्यङ्यान्तरमपि कराक्षिप्तमिति वयं विलोकयामः।" (पृ २२) इत्यादि कहा है। जिसका तात्पर्य है कि-'हे सखी तूने झूठ ही कहा था कि आपका प्रिय किसी भी दूसरी नायिका में अनुरक्त नहीं है। तुमने व्यर्थ ही मान बढ़ाकर उसे सन्तप्त कर दिया है। इसलिये तुम अपने प्रणय-व्यापार से उसे प्रसन्न कर सकती हो।' इसी के आधार पर मैंने तुमको ही उसे मेरे प्रति अनुकूल बनाने के लिये भेजा था। किन्तु उसने तुम्हारे साथ ही