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इस कारिका से उन्होंने बताया है कि "गङ्गाशब्द का अर्थ स्रोत होने के कारण उसका माधाराधेयभावसम्बन्ध घोषरूपी मुख्यार्थ के साथ बाधित है। इसलिए गङ्गापद की लक्षणा तीर में मानी जाती है। उसी तरह उसका तटरूपी अर्थ करने पर भी यदि घोषपदार्थ के साथ अन्वयबाधा रहती तो शैत्यपावनत्वादि प्रयोजनरूपी व्यङ्ग्यार्थ में लक्षणा वृत्ति स्वीकार कर सकते थे। इस प्रकार मुख्यार्थ सम्बन्ध ही लक्षणा है। शैत्यपावनत्वादि लक्ष्यार्थ मानने पर तटरूपी अर्थ मुख्यार्थ मानना पड़ेगा। किन्तु वह गङ्गापद का मुख्यार्थ नहीं है एवं उसका अन्वय बाधित नहीं है। अत: शैत्यपावनधादि अर्थ के साथ तट अर्थ का कोई प्रसिद्ध सम्बन्ध नहीं है एवं शैत्यपावनत्वादि इस प्रकार अर्थ में लक्षणावृत्ति के लिए कोई प्रयोजनान्तर नहीं है। क्योंकि "गङ्गा शब्द जिस तरह तट अर्थ को नहीं समझा सकता, उसी तरह शैत्यपावनत्वादि प्रयोजन को भी नहीं समझा सकता" ऐसी बात नहीं है। प्रयोजनवती लक्षणा के लिए यदि प्रयोजन में भी लक्षणा स्वीकार करेंगे तो अनवस्था-दोष उपस्थित हो जायगा, जो मूल को भी क्षीण कर देगा।
यहाँ 'न च शब्दः स्खलद्गतिः, इस कारिकांश का व्याख्यान करते हुए 'शब्दो लाक्षणिकशब्दः, मुख्यार्थबाधादिनरपेक्ष्येणार्थाबोषकत्वं स्खलद्गतित्वम् ।'
'सुबुद्धिमिश्रास्तु 'नन्वत्रापि निरूढलक्षणा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणाऽस्त्वित्यत पाह-न च शब्द इति । स्खलन्ती गति: शत्यादेर्शानं यस्यासौ स्खलद्गतिः शत्यादेरबोधको गङ्गादिः। (पृ० ११२) इत्यादि शब्द से दूसरों का व्याख्यान बताकर पश्चात् अपना मत बताया है। इसमें पहले व्याख्यान का सारांश यह हुआ कि 'मुख्यार्थबाध, मुख्यार्थसम्बन्ध और रूढिप्रयोजनान्यतर हेतू' इन तीनों के प्रभाव में भी लाक्षणिक गङ्गाशब्द शैत्यादि प्रर्थ का बोधक है।
सद्धि मिश्र जी का कहना है कि शैत्यपावनत्वादिरूपी प्रयोजन व्यङ्ग्य में निरूढा-लक्षणा नहीं हो सकती है क्योंकि गङ्गादि शब्द व्यञ्जना-व्यापार के द्वारा शैत्यपावनादि अर्थ का बोधक है इसलिए शैत्यपावनत्वादि का ज्ञान गंगादि शब्द से सुलभ है। फिर शैत्यपावनत्वादि में लक्षणा किस तरह हो सकती है ? उपाध्यायजी ने 'वयंव विरम्य व्यापारायोगः स्खलदगतिः" ..", नेत्यर्थः' (पृ० ११२) इस शब्द से जब गङ्गादि शब्द तटादिरूपी लक्ष्यार्थ को समझ कर विरत हो गया तब पूनः लक्षणा वृत्ति से शंत्यपावनत्वादि प्रयोजन रूपी अर्थ को किस तरह समझ सकते हैं? इस तरह का भाव बताया है जो कि युक्तिसंगत है। 'शब्दबुद्धिकर्मणां घिरम्य व्यापाराभावः' इस न्याय से लक्षणावृत्ति भी एक शब्द में पुन:पुनः नहीं हो सकती है। यह अभिप्राय सर्वथा युक्तिसंगत ही है।
इसी तरह व्यञ्जनावाद को लक्षणा में गतार्थ करने के लिए पूर्वपक्षियों ने गंगादि शब्द में शैत्यपावनत्वादिविशिष्ट तीरादि अर्थ में लक्षणावृत्ति स्वीकार की है। उसका खण्डन करते हुए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रयोजनेन सहितं लक्षणीयं न युज्यते' इस कारिकांश से यह प्रतिपादन किया है कि शैत्यपावनत्वादिप्रतीति प्रयोजन अर्थात् फल है और तरप्रतीति कार्य है। जिस तरह नैयायिक वैशेषिकों के मत में विषयप्रत्यक्ष और तदनुव्यवसाय युगपद् नहीं हो सकते। क्योंकि विषयप्रत्यक्ष के अनन्तर ही विषयसंवेदनाख्य अनुव्यवसायात्मक ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार कुमारिल भद्र के मत में विषय प्रत्यक्ष के अनन्तर ही विषयनिष्ठज्ञातता अथवा प्रकटतारूपी फल उत्पन्न होता है। उसी तरह गङ्गा शब्द से तीरप्रतीति होने पर ही शैत्यपावनत्वादि-प्रत्ययरूपी फल हो सकते हैं न कि तीरप्रत्यय और शैत्यपावनत्वादि प्रत्यय युगपद् हो सकते हैं।' कारणकार्यप्रतीति युगपद् नहीं हरा करती है।
यहाँ विशिष्टे लक्षणा नवं' यह मम्मट की कारिका है। उसका व्याख्यान उपाध्यायजी ने 'वयं यद्यत