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लक्षणा के भेद
लक्षणा
शुद्धा
गौरणी
सारोपा-साध्यवसाना
उपादान लक्षणा
लक्षणलक्षणा
सोरोपा-साध्यवसाना
सारोपा-साध्यवसाना
प्राचार्य मम्मट ने 'लक्षणा तेन षड्विधा'। (सू. १७) इस कारिकांश से प्रथम १. शुदा और २. गौरणी ये दोनों लक्षणा के भेद बताये हैं। तदनन्तर शुद्धा के १. 'उपादानलक्षणा और २. लक्षणलक्षणा ये दो भेद पुन: बताकर गौणी के 'सारोपा और २. साध्यवसाना' ये दोनों भेद बताकर लक्षणा के छः भेद बताए हैं। प्रागे जाकर पुनः १. गूढव्यङ्ग्या २. अगूढव्यङ्ग्या तथा ३. प्रव्यङग्या इस तरह लक्षणा के तीन भेद बताए हैं।
यहाँ शुद्धात्व का परिष्कार उपाध्यायजी महाराज ने 'भत्र ब्रूमः' (पृ.० ७४) इत्यादि शब्द से गौणीपदवाच्य 'भिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्व'रूप किया है । अभिप्राय यह है कि जिस स्थल में सादृश्यसम्बन्धमूलक लक्षणा होती है उसे 'गुरणादामता' इस व्युत्पत्ति से गौणी कहते हैं । और जहाँ सादृश्य से इतर स्वसामीप्यभाव, अवयवावयविभाव
आदि सम्बन्ध लेकर लक्षणा होती है उसे शुद्धा लक्षणा कहते हैं। जहां उपचार का मिश्रण होता है उसे गौणी पौर जहाँ उपचार का अमिश्रण होता है वहाँ शुद्धा लक्षणा मानी जाती है। 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गापदार्थ और तीर पदार्थ में सादश्यातिशय को लेकर भेदप्रतीति स्थगित करने की कोई प्रावश्यकता नहीं होती है इसलिए यहाँ शुद्धा मोर 'गौर्वाहीकः' यहाँ पर जाड़य, मान्द्य प्रादि गुणों को लेकर सादृश्यातिशय होने के कारण जलप्रवाह विशेष और तीर अर्थ में भेदप्रतीति का शैथिल्य करना पड़ता है। यहाँ प्राचार्य मम्मट ने स्वयं मुकुलभट्ट का मत खण्डित किया है। उनके मत में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ इन दोनों का भेदरूप ताटस्थ्य होने पर शुद्धा और भेदरूप ताटस्थ्य न होने पर गौणी लक्षणा सिद्ध होती है। किन्तु शुद्धा का उदाहरण 'गङ्गायां घोषः' है। यहाँ यदि जलप्रवाह और तट ये दोनों भिन्नरूप से प्रतीत हों तो 'गङ्गातटे घोषः' इस तरह का वाक्योच्चारण न कर 'गङ्गायां घोषः' इस तरह के वाक्योच्चारण से तट में जो शक्यतावच्छेदक गङ्गात्व की प्रतीति और उसके गङ्गागतशैत्यपावनत्वादि की प्रतीति जो अभीष्ट है वह कथमपि सम्भव नहीं हो सकती है।
गूढत्व का परिष्कार 'सहवयमात्रवेद्यत्वम्' तथा भगूढत्व का परिष्कार 'सहृदयासहृदयवेचत्वम् किया है।
हृदय शब्द से प्रतिभा प्रर्थ समझना चाहिए। प्रतिभा का तात्पर्य नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि है। उत्तमत्व. प्रयोजक गूढवती लक्षणा का उदाहरण भाचार्य मम्मट ने
मुखं विकसितस्मितंशितवक्रिमप्रेक्षितं, समुच्छलितविभ्रमा गतिरपास्तसंस्था मतिः ।