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पुनः सर्वेषां शम्दानां जातिरेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्यन्ये' 'इस शब्द से शुक्लत्व, पाकत्व, डिस्थत्व आदि धर्म वाच्यार्थ होगा' ऐसा मत प्रदर्शित किया है । 'तद्वान' शब्द से जात्याश्रय व्यक्ति ही शब्दार्थ होता है ऐसा सूचित किया है । 'अपोहो वा' शब्द से बौद्धाचार्य धर्मकीति आदि सम्मत इतरव्यावृत्ति को पदार्थत्व सूचित किया है। यह विस्तृतविचार मम्मट ने साहित्यानुपयोगी समझकर यद्यपि छोड़ दिया है तथापि जात्यादि, जाति, जातिमान् और अपोह ये शब्दार्थ हो सकते हैं यह तो स्पष्ट ही उन्होंने कहा है। प्राचार्य मम्मट ने अभिधेयार्थ को मुख्य-अर्थ और अभिधा को प्रथम शक्ति के रूप में स्वीकृत किया है।
यहीं वाचकशब्द की परिभाषा को परिष्कृत करते हुए उपाध्यायजी ने 'अथ सतविषयतावच्छेदकेन रूपेण साक्षात सतविषयार्यप्रतिपादकत्वं' (पृ. २६) इस शब्द से वाचकत्व का स्वरूप प्रदर्शित करते हए अन्त में यस्मिन् शब्दे यदा यदर्थविषयस्य साक्षात् संकेतस्य ग्रहः प्रतिपत्तिजनकः स तदा तस्य वाचकः' (पृ. २६-२७) इस तरह वाचक का परिष्कृत लक्षण बताया है। .
इसी प्रसंग में प्रदीपकार का मत प्रस्तुत करके उस पर अपना विचार भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है (द्र. पृ. २८-२९) । अभिप्राय यह है प्रत्येक शब्द यत्किञ्चित् अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण वाचक को लाक्षणिक मादि से भिन्न बताने के लिए यत्तच्छन्दघटित ही वाचकत्वस्वरूप समझाना होगा। इसलिए 'गङ्गायां घोषमत्स्यौ' इस तरह के वाक्य में गङ्गा शब्द तीर का वाचक नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस शब्द में जिस समय में यदर्थ विषयक साक्षात् सङ्कतह शाब्दबोधजनक होता है। उस समय में वह शब्द उस अर्थ का वाचक है। प्रस्तुत वाक्य में गङ्गा शब्द, तीर विषयक साक्षात् सङ्कतग्रह शाब्दबोधजनक न होने के कारण तीररूपार्थ का वा
सङ्केत की परिभाषा 'तस्माद् व्यवहारकोशादिव्यङग्योऽतिरिक्त एव पदार्थः सङ्कतसंज्ञकः (प. ३०) इस शब्द से 'भस्माच्छन्दादयमों बोडव्यः' इत्यादि ईश्वरेच्छा से विलक्षण पदार्थान्तर सङ्कत को सूचित किया है। जो कि मीमांसक आदि प्रसन्नता से मान्य कर सकते हैं।
इसी प्रकार प्राणप्रदत्व 'यावद्वस्तुसम्बन्धित्वम् नतु यावद्वस्तुस्थायित्वं नीलपीतादीनामपि नित्यत्वेन यावद वस्तुस्थायित्वात्..."(पृ. ३५) इत्यादि शब्द से बहुत सुन्दर परिष्कार बताया है ।
.. यद्यपि परिभाषा की योजना नव्य नैयायिक की शैली से अछूती नहीं रही है तथापि निर्दुष्ट परिभाषा बनाने के लिए उपाध्यायजी ने भरसक प्रयत्न किया है। तथा जात्यादि के बीच वस्तुतः कोन वाच्यार्थ हो सकता है ? इस विषय में मीमांसक आदि की चर्चा करते हुए 'तस्माद् व्यक्तिपक्ष एव क्षोदक्षमः "पृ०५२।' इस शब्द से जात्यवच्छिन्न व्यक्ति में ही बाचकता सिद्ध की है। यद्यपि यह मत इनका स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि नंयायिकों ने भी 'जात्याकृतिव्यक्तयः पदार्थाः' ऐसा गौतमसूत्रानुसारी उसी तरह का सिद्धान्त प्रदर्शित किया है तथापि श्रीउपाध्यायजी ने भनेकान्तवादी सिद्धान्त के प्रतिपादक होते हुए भी स्थान-स्थान पर नैयायिक मत से सिद्ध पदार्थों को मादर की दृष्टि से स्वीकार करना कर्तव्य समझा है।
'प्रत्र प्रतिभाति-शक्तिस्तावत् पदार्थान्तरमित्युक्तम्, तच्च""(इत्याद्यारभ्य) नापि कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ कन्तधरत्वप्रकारकबोधाभ्युपगमनिबन्धनोक्तदोषप्रसङ्ग इति' (पृ० ५८) इत्यन्तं वाक्य से बड़ा ही मार्मिक पदार्थान्तर सङ्कत. पदार्थ को समझाते हए गङ्गादि शब्द को तीर यमुनादि अर्थ का अवाचकत्व सिद्ध किया है तथा इसी बीच प्रसंगवश प्रतेक अन्य टीकाकारों के मतों का विवेचन भी दिया है जिनमें मणिकार, सुबुद्धि मिथ, मधूमतीकार आदि प्रमुख हैं।