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[ ६४ ] नागेश्वरी - पं० हरिशङ्कर शर्मा ( १६वीं शती ई० )
ये मिथिला के अन्तर्गत वृद्धवाचस्पति के जन्मस्थल 'ठाढ़ी' नामक ग्राम में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने 'पातञ्जलमहामाध्य' का 'विवरण' एवं कुछ अन्य ग्रन्थों की रचना की थी। इसी परम्परा में काव्यप्रकाश की 'नागेश्वरी' टीका बनी है। इनका समय १६वीं शती का उत्तरार्ध है। इसका प्रकाशन वाराणसी से श्री डी० प्रा० शास्त्री द्वारा (चौखम्बा ) काशी संस्कृत सीरिज क्र० ४९ में सन् १९२६ में हुआ है ।
[ ६५ ] टीका- जीवानन्द विद्यासागर ( १६वीं शती ई० )
इसका प्रकाशन कलकत्ता से १८६६ तथा १८६७ में हुआ है ।
श्री जीवानन्द विद्यासागर ने संस्कृत-साहित्य के उद्धार के लिए बड़ा प्रयत्न किया था। कलकत्ता में रहते हुए इन्होंने जहाँ साहित्यिक ग्रन्थों का प्रकाशन किया वहीं स्वयं टीका-प्रटीकाएँ लिखकर भी साहित्यिक की श्रीवृद्धि की है। कुछ नाटकों पर भी इनकी टीकाएं प्राप्त होती हैं। काव्यप्रकाश पर इनकी इस टीका का उल्लेख कंटलागस कंटलागरम् में हुआ है।
महेश्वर न्यायालङ्कार रचित 'आदर्श' टीका का सम्पादन भी इन्होंने १८७६ में करके प्रकाशित किया था ।
[ ६६ ] चन्द्रिका कवीन्द्राचार्य [ सन् १९४८ ]
कं० कं में इसका सूचन है ।
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[ ६७ ] मधुसूदनी - पं० मधुसूदन शास्त्री ( १६७२ ई० रचना पूर्तिकाल )
प्रस्तुत टीका के कर्ता काशी हिन्दूविश्वविद्यालय के साहित्यविभाग के भूतपूर्व प्राध्यापक तथा वहाँ की प्राच्यशाखा के प्रमुख पं० रामजीलाल शास्त्री के पुत्र पं० मधुसूदन शास्त्री हैं। इन्होंने अपनी टीका के अन्त में अपना वंशपरिचय, टीका - निर्माण का उद्देश्य एवं रचनाकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख किया है। कुछ पद्य इस प्रकार हैं
प्रासूत रामो विदुषां वरेण्यो वक्तावरी श्री मधुसूदनार्यम् । महात्मनस्तस्य कृतौ व्यरंसीत् काव्यप्रकाशे मधुसूदनीयम् ॥
ग्रन्थे दृढे सुमतिनाऽपि न बोद्धुमर्हा, व्याख्याशतैरपि च गड्डलिकाप्रवाहैः । थे, तेत्र धीभिरनुशीलन मार्गतो मे, दोषाः स्वतः स्फुरणमायुरतो न पङ्कम् ॥ X
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालये साहित्यभागके । अध्यक्षत्वं तथा प्राच्यशाखाप्रमुखतां भजन ॥ X X
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नन्द - हष्टि - वियदश्वि सम्मिते वत्सरे घवल-माधवे शिवे । पूर्णतामियमगात् कृतिस्तथा सद्गतिर्भगवती प्रसीदतात् ॥
इसके अनुसार यह 'मधुसूदनी' काव्यप्रकाश का अनुशीलन वि० सं० २०२६ में पूर्ण हुआ है। इसी टीका को लक्ष्य में रखकर शास्त्रीजी ने 'बालक्रीडा' नामक हिन्दी टीका भी लिखी है ।