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इस प्रकार शाण्डिल्यवंशीय कान्यकुब्ज गङ्गादास दीक्षित के वश में शिवानन्द के पुत्र भीमसेन दीक्षित भगवद्भक्त, अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ तथा कवि थे। इन्होंने यद्यपि अन्यान्य पूर्ववर्ती टीकाकारों का उल्लेख किया है तथापि मुख्यरूप से गोविन्द ठक्कुर की 'काव्यप्रदीप', श्रीवत्सलाञ्छन की 'सारबोधिनी' और परमानन्द चक्रवर्ती की विस्तारिका टीका के मूलांशों का उद्धरण पर्याप्तरूप में लिया है। किन्तु जहाँ काव्यप्रकाश के विरुद्ध कुछ लिखा गया है उसका अपने मतानुसार युक्ति-प्रयुक्ति द्वारा खण्डन करने में सोच भी नहीं किया है।
प्राचार्य भीमसेन प्रमुखतः वैयाकरण थे, इसीलिए इन्होंने "इति तार्किकाः, इति जरन्नयायिकाः, इति नवीनताकिका" इत्यादि वाक्यों द्वारा ताकिकों के मतों का निर्देश करके खण्डन किया है।
श्रीदीक्षित के 'अलङ्कार-सारोद्धार' तथा 'कुवलयानन्दखण्डन' नामक ग्रन्थों की रचना का भी काव्यप्रकाश की इस टीका में दिए गए उल्लेखों से पता चलता है। 'कुवलयानन्दखण्डन' का लेखन अजितसिंह (१६८०.१७२५ ई.) के राज्य में जोधपुर में हुआ था।
इसका समय काव्यप्रकाश की सुधासागरी टीका के अन्त में इन्होंने इस प्रकार दिया हैसंवद्ग्रहाश्वमुनिभू (१७७६) मासे मधौ सुदि । त्रयोदश्यां सोमवारे समाप्तोऽयं सुधोदधिः ॥१॥
इस ट्रीका का प्रकाशन म० म० नारायणशास्त्री खिस्ते के सम्पादन में 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज, के ५६ वे ग्रन्थ के रूप में वाराणसी से १७२७ ई० में हप्रा है।
[६३ ] साहित्यकौमुदी-बलदेव विद्याभूषरण ( १७वीं शती ई० का प्रारम्भ )
ये केवल विद्याभूषण के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। राधादामोदरदास तथा गोपालदास के शिष्य और उद्धवदास के गुरु थे। स्वयं वैष्णव एवं चैतन्यसम्प्रदाय के अनुयायी होने के कारण इन्होंने अनेक वैष्णव ग्रन्थों की भी रचना की है। मध्व तथा चैतन्य-मतानुयायियों में समन्वय स्थापित करने का सदा इनका प्रयत्न रहा। मूलतः ये उड़ीसा के निवासी थे।
काव्यप्रकाश की कारिकानों को सूत्र अथवा भरतसूत्र कहते हुए इन्होंने अपनी टीका को भरतसूत्रवृत्ति' अपर नाम 'साहित्यकौमुदी' दिया है। इसकी योजना काव्यप्रकाश के अनुरूप ही है किन्तु शब्द एवं अर्थगत अलड्रारों पर ग्यारहवां अध्याय अतिरिक्त है । इस तरह यह एक टीका होने के साथ ही स्वतन्त्र ग्रन्थ भी कहा जाता है।
इनकी उपर्यक्त टीका के अतिरिक्त अन्य रचनाएँ 'वेदान्त-सूत्र' पर 'गोविन्द भाष्य' तथा 'प्रमेय-रत्नावलो' हैं। प्रोफेक्ट के कथनानुसार 'उत्कलिका-वल्लरि' पर इनकी टीका १७६५ ई. में लिखी गई थी।
[ ६४ ] (क) कृष्णानन्दिनी स्वोपज्ञ टिप्पणी- बलदेव विद्याभूषण (१८ श० प्रा०)
बलदेव विद्याभूषण ने ही स्वरचित 'साहित्यकौमुदी' पर स्वोपज्ञ टिप्पणी लिखी है। प्रालवार ग्रन्थसूची, प्राफेक्ट, भाण्डारकर, पीटर्सन एवं विश्वभारती (१४६६) की सूक्तियों में इसका उल्लेख हुआ है।
'कृष्णानन्दिनी' सहित 'साहित्यकोमुंदी' का प्रकाशन श्री शिवदत्त तथा के० पी० परब के सम्पादन में निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से १८६७ ई० में हुआ है।