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वास्तविक नाम 'निवर्शन' है। 'शितिकण्ठविबोधन' वैकल्पिक अथवा विवरणात्मक नाम है जो शितिकण्ठ अथवा शिव से सम्बन्धित है जिसे टीका के पाठ में सिद्ध किया है। हॉल ने 'वासवदत्ता' की भूमिका पृ०१६ में यह मानकर कि यह ग्रन्थ शितिकण्ठ रचित है तथा प्रामाद को समर्पित किया है, गलती की है। (डॉ. डे, सं. का. शा. का.इ. भा० १, पृ. १५४-१५५) । दक्षिण महापाठशाला डेक्कन कालेज, पूना की हस्तलिखित पुस्तकानुक्रमणी में प्रानन्द कवि को श्रीकण्ठ' कहा गया है।
प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ मेंप्रणम्य शारदां काव्य-प्रकाशो बोषसिद्धये । पदार्थविवृतिद्वारा स्वशिष्येभ्यः प्रवर्यते । इत्यादि पद्य दिया है।
[ ५१ ] काव्यप्रकाशादर्श- महेश्वर भट्टाचार्य ( महेश ) ( सन् १६७५ ई० १७२५ ई० )
ये बङ्गाल में प्रचलित 'दायभाग' की टीका के कर्ता एवं न्यायालङ्कार' उपाधि से विभूषित थे। इन्होने प्रादर्श में परमानन्द चक्रवर्ती का उल्लेख किया है तथा 'उदाहरण-चन्द्रिका' में वैद्यनाथ तत्सत् ने इनका उल्लेख किया है । अतः इन दोनों के मध्य १६-१८वीं शताब्दी इनका स्थितिकाल है ऐसा तात्पर्यविवृत्ति'कार का मत है । 'आदर्श' का दसरा नाम 'भावार्थ चिन्तामणि' है। जीवानन्द विद्यासागर द्वारा कलकत्ता से १८७६ ई० तथा कलकत्ता संस्कृत सीरिज में १९३६ में इसके संस्करण प्रकाशित हुए हैं।
[ ५२ ] काव्यप्रकाश-विवरण- म० म० गोकुलनाथ उपाध्याय ( सन १६७५ से १७७५ ई.)
मिथिला के विद्या और तप की सिद्धि को प्राप्त विद्वानों की प्रावासभूमि के रूप में सुप्रसिद्ध 'मङ्गलवनी' (मंगरोनी) नामक ग्राम में 'फरणदह' ब्राह्मणों के वंश में उत्पन्न महामहोपाध्याय रुचिपति के वृद्धपौत्र, सदुपाध्याय हरिहर के प्रपौत्र, सदूपाध्याय रामचन्द्र के पौत्र तथा म० म० विद्यानिधि पीताम्बर और उमादेवी के पुत्र म०म० गोकुलनाथ का जन्मसमय सत्रहवीं शती का अन्तिम चरण माना जाता है। इसका प्राधार इन्हीं के द्वारा प्रणीत 'मासमीमांसा' ग्रन्थ में दिए हए 'अस्मिन्नेवैकत्रिशदधिकषोडशशताडिते (१६३१ ) शककाले वैशाखो मलमासः' इत्यादि वाक्य को माना गया है। यह समय १७०६ ई० का है। प्रायः ६० वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हा था । उस समय इनके वियोग से दुःखित म०म० रामेश्वर शर्मा नामक शिष्य ने यह पद्य लिखा था, जो कि इनकी प्रौढ़ विद्वत्ता का भी परिचायक है --
मातर्गोकुलनाथनामक गुरोवरिदेवि तुभ्यं नमः, पृच्छामो भवती महीतलमिदं त्यक्त्वैव यद् गच्छसि । भूलोके वसतिः कृता मम गुरौ स्वर्गे तथा गोष्पती, पाताले फरिणनायके भगवति ! प्रोढिः क्व लग्धाधिका ॥
म० म० गोकुलनाथ ऐसे सारस्वतकुल में उत्पन्न हुए थे जिसमें अनेक सिद्ध उपासक तथा विद्या-वैभव सम्पन्न पुरुष हुए हैं। इनके ज्येष्ठ भ्राता म० म० त्रिलोचन तथा म०म० धनञ्जय और अनुज म०म० जगद्धर भी अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध विद्वान् थे। म. म. रघुनाथ (सर्वस्व दानदाता) और म. म. लक्ष्मीनाथ नामक इनके दो पुत्र थे। इन्होंने कुलपरम्परा से प्राप्त सिद्धसारस्वत मन्त्र का पुरश्चरण करके सरस्वती की कृपा प्राप्त की थी, उसी का यह परिणाम था कि इनकी प्रतिभा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र थी। मिथिलाधीश राघवसिंह तथा टिहरी गढ़वाल के नरेश फत्तेशाह से इन्हें पूर्ण सम्मान प्राप्त था।