________________
८७
भास्कर की 'साहित्यदीपिका' श्रीवत्स की 'सार-बोधिनी', सुबुद्धिमिश्र तथा पण्डितराज की टीकाएँ, परमानन्द की 'विस्तारिका' और गोविन्द की 'प्रदीप' का समावेश है। इसी में 'तत्त्वपरीक्षा' और 'रसरत्न-दीपिका' नामक दो अन्य टीकामों के नाम भी हैं।
स्टीन (भूमिका पृ०७ आदि) के कथनानुसार ये 'राजतरङ्गिणी' की मूल पाण्डुलिपि (codex archetypus) ने तैयार की थी। इन्होंने ही रुय्यक के संकेत की पाण्डुलिपि ई० १६५५ में 'अमर' पर रायमुकुट की टीका तथा १६७३ ई० में त्रिलोचनदास की 'कातन्त्रचन्द्रिका' की अनुलिपि तैयार की थी। इन्होंने १६७२ ई० में युधिष्ठिर-विजयकाग्य की टीका (पौफेक्ट i, ४८६ बी., स्टीन, उपर्युक्त ग्रन्थ) तथा 'स्तुतिकुसुमाञ्जलि-टीका' (शिष्यहिता) की रचना १६८१ ई० में निर्मित की थी। इसी के आधार पर इनका साहित्य-रचना काल १६४८ से १६८१ ई० माना गया है।
इनके उद्धरण पीटर्सन की रिपोर्ट ii, पृ० १२६ (तथा ii, १६ प्रादि) में दिये गये हैं।
{ ४E ] लोला- भवदेव ( सन् १६४६ ई० रचनाकाल )
ये मिथिला निवासी कृष्णदेव के पुत्र तथा भवदेव ठक्कुर के शिष्य थे। इन्होंने 'वेदान्त-सूत्र' पर भी टीका लिखी है। प्रोफेक्ट ii, २० तथा मद्रास कैटलॉग १२८२४-२५ में इसके उद्धरण दिए हैं। इस टीका के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि ये शाहजहाँ के राज्यकाल में हुए थे तथा इन्होंने प्रस्तुत टीका की रचना शक १५७१=१६४६ ई० में पटना में की थी।
[ ५० ] निदर्शना (सारसमुच्चय)-- राजानक प्रानन्द ( सन् १६६५ ई० रचनातिथि )
ये काश्मीर के निवासी, शंवागम के ज्ञाता एवं स्वयं शव थे। इन्होंने निदर्शना में प्राचार्य मम्मट के लियेषटत्रिशत्तत्त्व-दीक्षाक्षपितान्तर्मल-पटलत्वादिशाम्भवप्रवर-सूचक विशेषणों का टीका के उपक्रम में प्रयोग किया है। साथ ही शिवागम में प्रसिद्ध ३६ तत्त्वों का प्रतिपादन करते हुए व्याख्या में इस दर्शन पर भी प्रकाश डाला है। यही कारण है कि इस टीका के 'दर्शन-निदर्शन', शितिकण्ठ-विबोधन' तथा 'पानन्दी' जैसे अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं । बूह्नर की काश्मीर-रिपोर्ट पृ. ६६ की पादटिप्पणी के अनुसार पृष्ठान्त विवरण में 'इति श्रीमद्राजानकान्वयतिलकेन राजानकानन्दकेन विरचितं काव्यप्रकाश-निदर्शनम्' ऐसा कहा गया है । जब कि-- स्टीन की जम्मू पाण्डुलिपि में-'इति श्रीकाव्यदर्शने शितिकण्ठविबोधने काव्योह शदर्शनं प्रथमम्'२ ऐसा विवरण दिया है। पीटर्सन के विचार में सम्भवतः टीका का
१. पूरा पाठ इस प्रकार है
"शिवागमप्रसिद्धघा षट्त्रिंशत्तत्त्वदीक्षाक्षपितमलपटलः प्रकटितसत्स्वरूपश्चिदानन्दघनो राजानककलतिलको मम्मटनामा देशिकवरो लोकिककाव्यस्य प्रकाशने प्रवृत्तोऽपि 'प्रात्मतत्त्वं ततस्त्यक्त्वा विद्यातत्त्वे नियोजयेत्' इत्यादि ।
(प्रथम उल्लास का प्रथम भाग) तथा 'नियतिकृतनियमरहिता' इत्यादि की टीका के प्रारम्भ में
"ग्रन्थस्य काव्यप्रकाशापरनाम्नः शिवतत्त्वप्रकाशस्यारम्भे चिकीर्षायां विघ्नास्तत्प्रकाशप्रतिबन्धकाः स्वस्वरूपाख्यातेर्भेदप्रख्याकारणं मायादयः पाशभूताः' इत्यादि लिखकर इसी दर्शन के अनुसार व्याख्या की है। २. इस टीका की (अष्टम उल्लासान्त) एक प्रति श्रीलालबहादुरशास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली के पाण्डुलिप
संग्रह में भी प्राप्त है।