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काव्यप्रकाशे टिप्पण्यः सहस्र सन्ति यद्यपि ।
ताम्यस्त्वस्या विशेषो बः पण्डितः सोऽवधार्यताम् ।। कमलाकर भट्ट ने इस टीका के अन्त में अपना परिचय निम्न लिखित पद्यों से दिया है
गुणिनोऽनन्तपुत्रस्य विनोदाय सतां मुदे । कमलाकर-संज्ञेन श्रम एष विनिर्मितः ॥ तन्दुस्तकमेघः फरिणपतिमणितिः पाणिनीये प्रपञ्चे, न्याये प्रायः प्रगल्मः प्रकटितपटिमा भट्टशास्त्रप्रघट्टे । प्रायः प्राभाकरीये पथि मथितदुरूहान्त-वेदान्तसिन्धुः,
श्रोते साहित्यकाव्ये प्रखरतरगतिधर्मशास्त्रेषु यश्च ।। येनाकारि प्रोद्मटा वातिकस्य, टोका चान्या विशतिम्रन्थमाला।
श्रीरामाछ्योरपिता निर्णयेषु, सिन्धुः शास्त्रे तत्त्वकौतूहले च ॥ इन पद्यों तथा 'श्रीमन्नारायणाख्यात' इत्यादि रामकृष्ण भट्ट के परिचय में प्रदत्त पद्य से इनके प्रखर पाण्डित्य एवं अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ होने का प्रमाण मिलता है।
इन्होंने अपनी टीका में 'सोमेश्वर' सरस्वती तीर्थ, चण्डीदास, मधुमतीकार, रविभट्टाचार्य, पद्मनाभ, परमानन्दचक्रवर्ती, देवनाथ, श्रीवत्सलाञ्छन और प्रदीपकार आदि काव्यप्रकाश के टीकाकारों के नाम उल्लिखित किए हैं । स्वतन्त्र ग्रन्थकारों के रूप में केवल भोजराज तथा अप्पयदीक्षित के ही नामों का उल्लेख है। ये बालबोधिनीकार के विद्यागुरु, सखाराम भट्ट के अतिवृद्धपितामह तथा महाराष्ट्रीय थे। इन्होंने 'निर्णय-सिन्धु' की रचना के अन्त में
वसुऋतुऋतमू (१६६८) मिते गतेऽब्दे, नरपतिविक्रमतोऽथ याति रोद्रे ।
तपसि शिवतिथी समापितोऽयं रघुपतिपादसरोरुहेऽपितश्च ॥ यह पद्य खिला है । अत: इनका समय ई० सन् १६११-१२ माना गया है।
इस टीका का प्रकाशन वाराणसी से सन् १८६६ में IOC ३ सं० ११४३/३६१, पृ० ३२७ पर उद्धरणसहित श्रीपपाशास्त्री के सम्पादन में हुआ है। इसका 'प्रो० बाबूलाल शास्त्री शुक्ल उज्जैन' ने भी सम्पादन करके संस्करण तैयार किया है जो प्रकाशनाधीन है। [४४ ] नरसिंहमनीषा- म० म० नरसिंह ठक्कुर ( सन् १६०० १७०० ई० )
____ इनकी टीका में-चण्डीदास, लाटभास्कर मिश्र, सुबुद्धिमिश्र, मधुमतीकार रवि भट्टाचार्य, कौमुदीकार, आलोककार, यशोधरोपाध्याय, मरिणसार, रुचिकर मिश्र, परमानन्द चक्रवर्ती और प्रदीपकार प्रादि काव्यप्रकाश के टीकाकारों का उल्लेख हुमा है। ये गदाधर ठक्कुर के पुत्र थे। इनका घुसौत-विप्रवंश था। रविकर ठक्कुर से ये पाठवें पुरुष थे। इन्होंने कमलाकर भट्ट की टीका को 'अभेदावगमश्च प्रयोजनम्' इस पंक्ति की व्याख्या में अपने मत का समर्थन करने के लिए 'इति नवीनाः' कहते हुए उद्धृत किया है। इसी के आधार पर इनका समय सत्रहवीं शती ई० का पूर्वार्ध माना गया है।
इन्होंने अपनी टीका में स्वरचित किसी काव्य के अनेक पद्य उदाहृत किए हैं। 'ताराभक्ति-सुधार्णव' नामक तन्त्रग्रन्थ की रचना भी इन्होंने की थी। ये न्यायशास्त्र के प्रमाड पण्डित थे। भीमसेन ने सुधासागरी में 'न्यायविद्यावागीश' कह कर इन्हें सम्बोधित किया है। दोषनिरूपणात्मक सातवें उल्लास में इनके विद्याभव और विनयादि से सम्बद्ध यह पञ्च प्राप्त होता है