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[ ५७ ] टोका-नारायण दीक्षित ( १७वीं शती ई० का अन्त भाग )
ये रंगनाथ दीक्षित के पुत्र तथा बालकृष्ण दीक्षित के भ्राता थे। रंगनाथ ने 'विक्रमोर्वशीयम्' पर प्रपनी टीका १६५६ ई० में समाप्त की थी। अतः इनका समय १७वीं शती ई० का अन्तभाग निर्धारित किया गया है प्रोफे क्ट भा० १, १०१ बी० (२०२ ए० पृ० १५५ द्रष्टव्य है)। [५८ ] बृहद उद्योत- नागेशभट्ट ( १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध )
यह टीका म०म० गोविन्द ठक्कुर रचित काव्य-प्रकाश की व्याख्या पर लिखी हुई प्रटीका है। नागेश भट्ट का. अपर नाम नागोजी भट्ट भी है। इन्होंने चण्डीदास, उदाहरण-दीपिकाकार तथा परमानन्द चक्रवर्ती का अपनी टोका में उल्लेख किया है। तथा कहीं 'इति केचित्, इत्यन्ये इति परे, इति दाक्षिणात्याः इति कुवलयानन्दकृत्' लिखा है। इनका वंश परिचय इनके ही शब्देन्दुशेखर, वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा, उद्द्योत, मर्मप्रकाश तथा अन्य अनेक ग्रन्थों के प्रारम्भ
और अन्त भागों में दिया है । तदनुसार ये आश्वलायनशाखीय महाराष्ट्र ब्राह्मण, 'काले' तथा 'उपाध्याय' उपनामक पं० शिवभट और सतीदेवी के पुत्र थे। इनका निवासस्थान वाराणसी था और 'शृगवेरपुर' (इलाहाबाद के निकट प्राज का शिंग दौर') के राजा रामसिंह के कृपापात्र थे। 'वैयाकरण-सिद्धान्त कौमुदी' महावैयाकरण के निर्माता भट्रोजी दीक्षित के पौत्र श्रीहरि दीक्षित के शिष्य तथा बालम्भट्ट उपनामक वैद्यनाथ के गुरु थे ।
"याचकानां कल्यतरोररिकक्षहताशनात् । शृङ्गवेरपुराधीशाद् रामतो लब्धजीविकः । नागेशभट्टः कुरुते प्रणम्य शिवया शिवम् । काव्यप्रदीपकोद्योतमति गूढार्थसंविदे ।।
इति श्रीमदुपाध्यायोपनामक-शिवभट्टसुत-सतीगर्भज-नागोजीभट्टकृते लघुप्रदीपोद्योते दशम उल्लासः' इत्यादि पंक्तियों से इनका परिचय होता है।
भानूदत्त की 'रसमञ्जरी' पर इनकी 'इण्डिया आफिस' की पाण्डुलिपि की तिथि माघ, संवत् १७६६ फरवरी १७१३ ई० की है। यह तथा ऐसे ही कुछ अन्य आधारों को दृष्टि में रखते हुए इनका जन्म समय १७वीं शती का अन्तिम चरण माना गया है।
इनके बारे में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि बचपन में इनका मन अध्ययन में नहीं लगता था। फलत: ये विद्या. भ्यास को छोड़ स्वेच्छानुसार मित्रों के साथ व्यर्थ समय बिताया करते थे। एक बार इनके कुलक्रमागत पौरोहित्य वत्ति के प्रसङ्ग से इनका कोई यजमान वाराणसी आया और उसने 'पण्डित सभा' की। उसमें जो प्रमुख पण्डित के बैठने का प्रासन था उस पर ये धृष्टतापूर्वक जा बैठे। तब किसी पण्डित ने इनकी भर्त्सना की, जिसके परिणामस्वरूप ग्लानि का अनुभव करते हए इन्होंने यह निर्णय किया कि "या तो मैं सरस्वती को प्रसन्न कर विद्याप्राप्त करूँगा, नहीं तो स्वयं उनको अपनी बलि चढ़ा दूंगा।" . . इस निर्णय के अनुसार किसी से मन्त्रग्रहण कर दिनरात उसका जप किया और विद्या प्राप्त की।
श्रीनागेश भट्ट का बहुमुखी वैदुष्य उनके द्वारा रचित (१) बृहन्मञ्जूषा, (२) लधुमञ्जूषा, (३) परमलघुमञ्जूषा (४) बृहच्छब्देन्दुशेखर (५) लघुशब्देन्दुशेखर, (६) परिभाषेन्दुशेखर (७) लघुशब्दरत्न (८) मट्टोजीदीक्षितकृत कौस्तुभ की 'विषमी' नामक टीका (8) कैयट कृत प्रदीप व्याख्या और व्याकरण महाभाष्य की व्याख्या उद्द्योत-नामकव्याख्या का ज्ञापक संग्रह (१०) प्रत्याख्यान-संग्रह तथा (११) एकश्रुतिवाद नामक व्याकरण का ग्रन्थ (१२) प्रायश्चितेन्दशेखर (१३) प्राचारेन्दुशेखर (१४) तीर्थे दुशेखर (१५) श्राद्धेन्दुशेखर (१६) कालेन्दुशेखर प्रादि बारह शेखर
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