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यह विवरण केवल पांचवे उल्लास के कुछ प्रश तक ही उपलब्ध हुमा है। इसका सम्पादन तीन पाण्डुलिपियों के आधार पर कविशेखर श्रीबद्रीनाथ झा ने किया है तथा यह 'सरस्वतीभवन ग्रन्थमाला' से ८६ संख्या में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय' से १९६१ ई० में प्रकाशित हुआ है।
[ ५३ ] उदाहरणचन्द्रिका- तत्सत् वैद्यनाथ ( १६८३ ई० रचनासमाप्ति काल )
प्रस्तुत टीका 'काव्यप्रकाश' के उदाहरणों में पाए हए पद्यों की व्याख्या एवं तत्सम्बन्धी विवेचन को लक्ष्य में रखकर लिखी गई है। इसमें चण्डीदास, सुबुद्धि मिश्र, दीपिका कार, चक्रवर्ती, महेश आदि पूर्वटीकाकारों का नामोल्लेख हुप्रा है । यहाँ दीपिकाकार से इनका तात्पर्य जयन्त भट्ट न होकर गोविन्द भट्ट को मानना चाहिए क्यों कि वैद्यनाथ ने जिस मत का उपपादन दीपिकाकार के नाम से किया है वह जयन्त भट्ट की टीका में नहीं मिलता । साथ ही गोविन्द भट ने जो 'उदाहरण-दीपिका' लिखी है वह भी उदाहरणों की व्याख्यारूप है। अतः उदाहरणसम्बन्धी दूषण अथवा भूषण की चर्चा इसी की हो, यह उचित ही है। यहीं महेश का जो नामोल्लेख है उससे महेश्वर भट्टाचार्य का ग्रहण किया जाना उचित है क्यों कि 'इति महेश:' कहकर यहाँ जिस अंश का उल्लेख किया गया है वह महेश्वर की प्रादर्श' टीका में प्राप्त होता है।
वैद्यनाथ ने अपने कालादि के विषय में 'उदाहरणचन्द्रिका' के अन्त में लिखा है कि
मनल्पकविकल्पिताखिलसवर्थमन्जूषिकां, सदन्वयविबोधिकां विबुधसंशयोच्छेदिकाम् । उदाहरणयोजनाजनन-सज्जनालादिकामुदाहरणचन्द्रिकां भजत वैधनाथोदिताम् ॥१॥ वियद बेद मुनि क्षमा मिमितेऽग्वे कातिके सिते । बुधाष्टम्यामिमं ग्रन्थं वैद्यनाथोऽभ्यपूरयत्॥२॥
इति श्रीमत्पद-वाक्य-प्रमाणाभिज्ञ-धर्मशास्त्र-पारावारपारीण-तत्सविट्ठलमट्टात्मज-श्रीरामभट्टसरिसन्ना बंद्यनाथेन रचितायां काव्यप्रकाशोदाहरणविवृतावदाहरणचन्द्रिकायां दशम उल्लास: सम्पूर्ण इति ।
सम्भेदोऽयमनेकशास्त्रसरितामावर्तते सर्वतो, यत्रामू_मयन्ति मम्मटगिरां गूढाशया ग्रन्थयः । • एतस्योत्तरणे ममावतरतस्तीरं तरण्डं मवेदेको दुर्घटवस्तुजात घटनाकृत्ये पटुर्घजटिः॥३॥ लक्ष्मी तडित्पयोदस्य कारुण्यामृतबिन्दुभिः । विरराम मरुप्रान्तकान्तारतरणथमः ॥ ४॥ उदघातिनीयमवनिर्भवनं विदूरे, पान्था: स्खलन्ति विषमेण च सञ्चरन्ते । हस्तावलम्बमिह मे वितनोतु गौरी-वक्षोजपर्वतपुलिन्दवपुः पुरारिः ॥५॥ रसस्यान्तन मज्जन्ति रसमम्तन बिभ्रति । पारेपूरमलाबूनि प्रयान्ति तरसा बलात ॥६॥ मन्थानमन्दरगिरिभ्रमणप्रयत्नाद, रत्लानि कानिचन केनचिदुद्धृतानि । नन्वस्ति साम्प्रतमपारपयोधिपूर-गर्भावटस्थगित एष गरगो मणीनाम् ॥७॥ निगमाङ्ग गणेधन्वन्यनूपे चाध्वनि ध्वने: । समं प्रचरत: कृष्णपाथोद ! त्वयि निर्भरः ॥ ॥
पादाः पादकराक्रमेण शनकैर्गत्या नितम्बोच्चया, वक्रोच्चावचमार्गदुर्गतरणद्रोत्येन गण्डोपलाः। एषा मेखलया निबन्धहढया तीर्णा मया मेखला, प्राप्तो मध्यमसानुरत्र गिरिजाहस्तावलम्बो गतिः ॥६॥