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दोषप्रदानपटवो बहवोऽपि धूर्ता, मूका भवन्ति कठिने सरले प्रगल्माः ।
मातर्भवानि ! करवाणि ततोऽत्र का', मा कुण्ठितोऽस्तु मयि ते करुणाकटाक्षः ॥
इनकी लेखनशैली भी नैयायिकता से पूर्ण है । 'नरसिंह-मनीषा' केवल सप्तम उल्लास के पद दोष तक हो उपलब्ध होती है। [ ४५ ] मणिसार- अज्ञातनामा ? ( सत्रहवीं शती ई० का प्रारम्भ )
'नरसिंह-मनीषा' में नरसिंह ठक्कुर ने इस टीका का उल्लेख किया है। इसी आधार पर इनका समय ईसा की सत्रहवीं शती का प्रारम्भ माना गया है। अन्य जानकारी प्राप्त नहीं है।
[ ४६ ] दोपिका- शिवनारायणदास 'सरस्वतीकम्ठाभरण' ( १७वीं शती ई० का प्रारम्भ )
श्री शिवनारायणदास के पिता का नाम दुर्गादास था। 'सरस्वतीकण्ठाभरण' इनकी सम्मानित पदवी थी। बेबर ने अपनी सूची के प्रथम भाग में ८१६ संख्या पर तथा प्रौ] क्ट ने प्रथम भाग की १०२ ए. संख्या पर इसका उल्लेख किया है। इनके अन्य ग्रन्थों के बारे में भी प्रोफेक्ट i, में ६४६ बी० पर निर्देश है।
[४७ ] रहस्यप्रकाश- जगदीश भट्टाचार्य ( १७वीं शती ई० का पूर्वभाग)
ये नवद्वीप बङ्गाल के निवासी और गदाधर भट्ट के सहपाठी थे। इन्होंने 'शम्दशक्तिप्रकाशिका' एवं 'न्याय. चन्तामणि दीषिति-व्याख्या' का प्रणयन किया था। ये भवानन्द तर्कवागीश के शिष्य थे और उन्हीं के लालन-पालन में न्यायशास्त्र में निष्णात बने थे । दीधिति टीका पर 'जागदीशी' टीका इन्हीं की है। जागदीशी के नाम से उनकी टीकाएं भी हैं। इन्हें 'तर्कालङ्कार' नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।
प्रौफेक्ट ने भाग १, १०१ (मित्रा १६५१) में इसका उल्लेख किया है। इसकी पाण्डुलिपि इनके शिष्य ने शक १५७९%१६५७ ई. में तैयार की थी।
[ ४८ ] सारसमुच्चय- राजानक रत्नकण्ठ ( सन् १६४८ से १६८१ ई० ।
धौम्यायन गोत्रोत्पन्न, शङ्करकण्ठ के पुत्र तथा अनन्तकवि के पौत्र रत्नकण्ठ ने काव्यप्रकाश की 'सारसमन्वय नामक इस टीका में अपने से पूर्ववर्ती अनेक प्रसिद्ध टीकाकारों की टीकाओं का सार सङ्कलित किया है। तो
१. वामनाचार्य झलकीकर ने नरसिंह ठक्कुर को प्रदीपकार का वंशज ही माना है । तथा उसके कारण-(१) ठक्कुर
उपनाम साम्य एवं (२) प्रदीपकार के प्रति मतभेद रहने पर भी प्रादर तथा सुबुद्धि मिश्र और परमानन्द के खण्डन
में तुच्छभाव प्रकटन-दिए हैं। २. यह अभिमत कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा ने व्यक्त किया है। ३. डा० एस० के० डे ने 'जगदीश तर्कपञ्चान न भट्टाचार्य' का उल्लेख करते हुए इन्हें उक्त बंगालवासी से भिन्न माना
है, जबकि कविशेखर बद्रीनाथ झा तथा श्री धुण्डीराज सप्रेमादि विद्वानों ने प्रसिद्ध नैयायिक बंगवासी को ही
'रहस्यप्रकाश' का कर्ता माना है। ४. पीटर्सन रिपोर्ट भाग २, प्र. १७ प्रादि पर इनके द्वारा उल्लिखित लेखकों की सूची दी गई है।