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मातहा
और वहीं स्वविषयक परिचायिका पुष्पिका में
"इति संस्कृतसार्वभौम प्राकृतपृथ्वीश्वर-शौरसेनीशिरोमणि-मागधीमकरध्वज-पैशाचीपरमेश्वरापभ्रंशराजहंसामशरिकचक्रवति-ध्वमिप्रस्थापनपरमाचार्य-काव्यमीमांसा-प्रभाकर-सहृदय-शिरोमणि-सहजसर्वज्ञ-परमयोगीश्वर-श्रीमस्त्रि. भुवनविद्याचकतिवंशावतंस-महाकविश्रीविद्याचक्रवर्ति-कृतो 'सम्प्रदाय-प्रकाशिन्यां' 'काव्यप्रकाश-बृहटीका'यां दशम उल्लास: ।"
इस प्रकार लिखा है । तदनुसार इनके पिता श्री त्रिभुवनविद्याचक्रवर्ती बड़े प्रसिद्ध विद्वान् थे और ये 'महाकवि थे' इतना विशेष ज्ञात होता है।
इस टीका का प्रकाशन 'त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरिज' से सन् १९२६, १६३० में भट्ट गोपाल की टीका के साथ हुआ है । तथा डा. रामचन्द्र द्विवेदी,' (प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष संस्कृत, उदयपुर विश्वविद्यालय) के टोकानुसारी अंग्रेजी अनुवाद एवं रुय्यक-रचित 'काव्यप्रकाश-संकेत' सहित प्रकाशन 'मोतीलाल बनारसीदास-दिल्ली' से दो भागों में हुमा है। [ १४ ] टोका-अच्युतठक्कुर तर्काचार्य (सन् १४२५ ई० से १५०० ई०)
ये प्राचार्य ईसा की पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्ध में तीर भूक्ति के अधिपति महाराजाधिराज शिवसिंह के अमात्य-प्रवर रत्नपाणि के पिता थे। यह बात रत्नपाणि की टीका में उल्लिखित पद्य से ज्ञात होती है । टीका अप्रकाशित है। [१५ ] टोका-वाचस्पति मिश्र ( सन् १४५० से १५५० ई०)
यह अनामा टीका म० म० अभिनव वाचस्पति मिश्र मैथिल की है। ये मैथिल ब्राह्मणों में सुप्रसिद्ध सदपाध्याय गिरिपति मिश्र के पत्र 'स्वरोदय' के व्याख्याकार नरहरि मिश्र के पिता और 'सहल्यापरिमाण' मादि ग्रन्थों के निर्माता म०म० केशवमिश्र के पितामह थे । युवावस्था में मिथिलाधीश भैरवसिंह की सभा में तथा वार्धक्य में रामभद्र सिंह की सभा में प्रधान-पण्डित पद को प्रापने मण्डित किया था। इनका स्थिति समय सन् १४५० ई० से १५५० ई० के बीच 'तीरभुक्ति' के इतिहास में माना गया है। इन्होंने अपने जीवन में प्रायः ४१ ग्रन्थों की रचना की थी। इनका अन्तिम ग्रन्थ 'पितृमक्ति-तरङ्गिणी है जिसके अन्त में लिखा है कि
शास्त्रेदश स्मतो त्रिशनिबन्धा येन यौवने ।
निमितास्तेन चरमे वयस्येषा विनिर्ममे ॥ कुछ लोग साङ स्यादि समस्त दर्शनों के व्याख्याकार वृद्ध वाचस्पति को ही काव्यप्रकाश का टीकाकार मानते हैं यह उचित नहीं है क्योंकि उनका स्थितिकाल ८७६ ई० है। अतः वे मम्मट से प्राचीन ही हैं। चण्डीदास, विश्वनाथ तथा भीमसेन ने अपनी-अपनी काव्यप्रकाश की टीकामों में इनका उल्लेख किया है । टीका के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। [१६] काव्य-दर्पण- म०म० रत्नपाणि (मनोधर) ठक्कुर ( सन् १४५० ई० से १५०० ई०)
ये मिथिलेश शिवसिंह के अमात्य श्री अच्युत ठक्कुर के पुत्र थे। अतः इनका समय पन्द्रहवीं शती का उत्तरार्ध है। इन्होंने अपनी टीका में
१. डॉ. द्विवेदी ने प्रस्तुत टीकाकार पर विशेष अध्ययन कर अलंकार- सर्वस्व की 'सञ्जीविनी' टीका का भी सम्पादन
प्रकाशन किया है। अतः श्रीविद्याचक्रवर्ती के परिचय के लिए उक्त ग्रन्थ का अवलोकन भी अपेक्षित है। २. मैथिलद्विजपजी प्रबन्ध में भी इसका परिचय दिया है।