________________
७१
नारायण को 'प्रस्मतपितामह' कहा है जब कि साहित्य-दर्पण में 'अस्मद् वद्धपितामह' कहा है। 'एषां च षोडशानां लक्षणाभेदानामिह दर्शितान्युदाहरणानि मम 'साहित्यदपणेऽवगन्तव्यानि' तथा 'अनुमान' अलङ्कार के विषय में-'तदुक्तं मत्कृते साहित्यदर्पणे' इत्यादि काव्यप्रकाशदर्पण' में कहे गए वाक्यों के अनुसार प्रस्तुत टीका का निर्माण साहित्यदर्पण की रचना के पश्चात ही हया है। इनका समय अनेक ऊहापोहों के आधार पर म. म. काणे तथा एस० के० डे ने १३०० से १३५० ई० माना है जब कि म०म० दुर्गाप्रसाद ने (साहित्यदर्पण की भूमिका में) साहित्यदर्पण की रचना १३:५ ई० में मानी है। ये त्रिकलिगेश्वर के सान्धिविग्रहिक थे तथा इन्होंने१-राघवविलास-महाकाव्य
२-प्रभावती-परिणय ३-कुवलयाश्वचरित-प्राकृत काव्य
४-चंद्रकला-नाटिका ५-प्रशस्तिरत्नावली-षोडशभाषामयी
६-साहित्यदर्पण-काव्यशास्त्र ७-नरसिंहविजय-काव्य
८-काव्यप्रकाशदर्पण-टीका आदि पाठ ग्रन्थों की रचना की थी।
प्रस्तुत दर्पण टीका में विश्वनाथ के लिए 'सङ्गीत-विद्या-विद्याधर', 'कलाविद्या-मालती-मधुकर' तथा विविधविद्यार्णवकर्णधार' जैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत टीका में ही, चण्डीदास, श्रीधर और वाचस्पति मिथ आदि के नामों का उल्लेख किया है। यहीं प्रारम्भ और अन्त भाग में विश्वनाथ ने लिखा है कि -- प्रारम्भ-प्रमातृप्रमाणप्रमेयप्रपञ्च-प्रसति प्रमिण्वन्ति यां योगिवर्याः।
गिरां देवतां दैवतं देवतानां प्रबोधं प्रदेयादियं मत्प्रबन्धे ।। १ ।। टीका काव्यप्रकाशस्य दुर्बोधानुप्रबोधिनी । क्रियते कविराजेन विश्वनाथेन धीमता ॥ २ ॥ इह सर्वग्रहग्रस्ताः कुर्वन्ति कुधियो मुदा । न दोष: किन्तु कुत्रापि विचिन्वन्तु गति चिरात् ॥३॥ अन्त-लक्ष्मीर्वक्षो मुरारेस्विरिति कवयगते(?) भॊगमालाङ्गमौने,
मौनि सिन्धुः स्वराणामधिवसति बिधे विता यावदस्य । तावत् काव्यप्रकाशा'"त्ववधिगमान वारमासार्ककोटि
व्याख्या विख्यातिमेषा कविमुकुटमणेविश्वनाथस्य यायात् ॥१॥ इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्द-मधुकरालङ्कारिकचक्रवति-ध्वनिप्रस्थापन-परमाचार्याष्टादशभाषाविलासिनोभुजङ्ग-सङ्गीतविद्याविद्याधर-कलामालतीमधुकर-विविधविद्यार्णवकर्णधार-सान्धिविग्रहिक-महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृतौ काव्यप्रकाशदर्पणेऽर्थालङ्कारनिर्णयो' नाम दशम उल्लासः । इति ।
यदुगिरि बलिराजस्वामी तथा के. एस. रामस्वामी शास्त्री ने 'भाव-प्रकाशन' की भूमिका के अन्त में इन्हीं गोपाल भट्ट के काव्यप्रकाश का टीकाकार होने पर सन्देह प्रकट किया है, जो इस प्रकार है--
Some Scholars identify Bhatta gopāla the Commentator of the Kav aprakasha of Mammata with Bhattagopāla the father of Śāradātanaya. This identification may not be quite correct but it is certainly probale because of two considerations, Viz, (1) that the commentator Bhațțagopala does not quote any author or work later than Mammața and (2)
that he is at the same time quoted by the aothors like Kumārssvāmin and others in the early . part of the 15th. century.