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श्रीरामसिहदेवाज्ञामादाय रचितो मया । दर्पणाख्यः सदा तेन तुष्यतां श्रीसरस्वती।।
रत्नेश्वरो नाम कवीश्वरोऽसौ, विराजते काव्यसुधाभिषेक ।
दुस्तकं वक्ताहतदुर्विदग्धां वसुन्धरां पल्लवयन्नजनम् ॥ प्रय स्फुरतु वाग्देव्याः कण्ठाभरणकोतुकम् । मयि ब्रह्ममनोवृत्तो कुरणे रत्नदर्पणम् ॥
इसके आधार पर ये उत्तम कवि, टीकाकार तथा विरक्तस्वभाव के थे । सरस्वती-कण्ठाभरण की टीका में ही इन्होंने अपने द्वारा रचित काव्यप्रकाश की इस (अनामा) टीका का उल्लेख किया है। तथा इन्हीं के काव्यप्रबन्धविषयक कविसरणदीपिका' नामक ग्रन्थ का उल्लेख हरप्रसाद शास्त्री ने 'एशियाटिक सोसायटी' बंगाल के कैटलाग भाग ४ में पाण्डुलिपि सं० ४७१५ ए० ऑफ ८०६६ पृ० ४७१-७३ पर किया है । [ २० ] टोका-पुण्डरीक विद्यासागर ( १५वीं शताब्दी ई. से पूर्व )
ये बङ्गाल के निवासी थे। इनका उल्लेख श्रीवत्सलाञ्छन की सारबोधिनी टीका में हुआ है । इसी आधार पर इनका समय १५वीं शताब्दी से पूर्व माना गया है। प्रत्यक्षरूप से विद्यासागर' यह किसी टीकाकार की उपाधि है, ऐसी डा. डे की मान्यता है। साथ ही उनका कथन है कि-'विद्यासागर नामक एक लेखक ने भट्ट पर 'कलादीपिका' नामक टीका लिखी है। भरत मल्लिक (४७३ पर) तथा 'प्रमरकोश' पर अपनी टीका में रामनाथ ने इनका उल्लेख किया है। पं० शिवप्रसाद भट्टाचार्य (श्रीधर कृत काव्यप्रकाश-टीका की भूमिका पृ०३०) के मत से ये मम्मट के टीकाकार पण्डरीक विद्यासागर हैं जो १५वीं शती के प्रथम चरण में हए हैं। इन्होंने दण्डी तथा वामन पर भी टीकाएँ लिखी हैं। [ २१ ] विस्तारिका- परमानन्द चक्रवर्ती भट्टाचार्य ( १५ वीं शती ई०)
गौडीय न्यायनय प्रवीण परमानन्द चक्रवर्ती विस्तारिका' में 'इति मिश्राः' कहकर सुबुद्धिमिश्र, 'इति दीपिकाकृतः' से जयन्त भट्ट और 'यच्चोक्त विश्वनाथेन' से 'काव्यदर्पणकार' विश्वनाथ का स्मरण करते हैं। प्रदीपकार प्रादि ने इनको उद्धत किया है साथ ही न्यायाचार्य यशोविजयजी ने भी इनका उल्लेख किया है अतः ये इनसे पूर्ववतीं हैं। इसी प्राधार पर इनका स्थितिकाल विश्वनाथ के पश्चात् १४००-१५०० ई. के बीच माना गया है । भट्टाचार्य होने के आधार पर यह निश्चित है कि ये बङ्गवासी थे। इनके गुरु का नाम ईशान न्यायाचार्य था । ये चक्रवर्ती महाशय एक प्रसिद्ध नयायिक थे। गङगेशोपाध्यायरचित 'चिन्तामणि' पर इनका लक्षणगादाधरी ग्रन्थ 'चक्रवति-लक्षणम्' नाम से प्राप्त होता है । काव्यप्रकाश के सातवें उल्लास पर लिखी अपनी टीका में इन्होंने -
अन्धा दोषान्धकारेषु के वा न स्युविपश्चितः ।
नाहन्तु दृष्टिविकलो, धृतचिन्तामणिः सदा ।। यह पद्य लिखकर अपना 'चिन्तामरिण-पाण्डित्य' व्यक्त किया है। इन्होंने 'नैषध' (IOC. Vii पृ० १४३८) पर भी एक टीका लिखी है। इनकी टीका के प्रकाशन का उपक्रम कलकत्ता के राष्ट्रीय संस्कृत महाविद्यालय के अन. सन्धान विभाग द्वारा हा है तथा पीटर्सन की रिपोर्ट भाग २, पृ० १०८-१०६ पर एबं एच० पी० शास्त्री के कैटलाग ASB. MSS. VI. सख्या ४८३/२४६२ में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए हैं। [२२ ] सारबोधिनी- श्रीवत्सलाञ्छन भट्टाचार्य ( १५वीं शताब्दी ई० )
ये बङ्गाल के निबासी थे । इन्होंने अपनी टीका में सुबुद्धिमिश्र, विद्यासागर, भास्कर, जयराम, विश्वनाथ मौर तत्त्वबोधिनीकार के साथ ही प्रतापरुद्रयशोभूषणकार विद्यानाथ का नामोल्लेख किया है। वैसे यह टीका परमानन्द
इनके सम्बन्ध में अन्य ऊहापोह के लिये डा० डे, म. म. काणे तथा प्रो० सप्रे के ग्रन्थ भी दर्शनीय हैं। विद्यानाथ के 'प्रेतापरुद्रीय' का भी इन्होंने उल्लेख किया है।