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होने से अनुप्रास नहीं है' यह कह कर 'विशेष विचारस्त्वस्मत्कृत - बृहट्टी कातोऽवसेयः' ( प्रथम उल्लास पृ० ३ ) - - किया है । किन्तु यह अद्यावधि उपलब्ध नहीं है ।
- ( विवृति) - महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र गरि (सन् १५८८-१६६६ ई० )
तथा अनेक ग्रन्थ
[ ३२ ] काव्य - प्रकाश- खण्डन - ( ये भानुचन्द्र गरिण के शिष्य, शतावधानी, अकबर बादशाह द्वारा 'खुशफहम' पदवी प्राप्त और वृत्तियों के रचयिता के रूप में ख्यातिप्राप्त जैन श्राचार्य थे । प्रस्तुत खण्डन के अन्त में दी गई प्रशस्ति'इति पावशाह श्रीकश्वर सूर्यसहस्रनामाध्यापक- श्रीशत्रुञ्जय तीर्थकर मोचनाचनेक- सुकृत विधायक महोपाध्यायश्री भानुचन्द्रगरण - शिष्याष्टोत्तरशतावधान साधन प्रमुदित-पादशाहश्रीचकम्बरप्रदत्त सुष्फलमापराभिधान - महोपाध्यायचोसिद्विचन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाश-खण्डने वशम उल्लासः समाप्तः ।'
से इनका यह परिचय प्राप्त होता है। इनका स्थितिकाल १५८८ ई० से १६६६ ई० निश्चित है । पण्डितरा जगन्नाथ के ये समकालीन थे। इनके जीवन एवं कृति प्रादि के विषय में इन्हीं के द्वारा रचित 'भानुचन्द्रचरितम् " नामक विशिष्ट ग्रन्थ में यथेष्ट लिखा गया है ।
महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र ने प्रस्तुत टीका, एक आलोचनात्मक दृष्टि से की है । काव्य - प्रकाश में प्रतिपादित जिन विचारों के विषय में ग्रन्थकार का कुछ मतभेद रहा है, उस मतभेद को प्रकट करने के लिए इसकी रचना की गई है, न कि उसके सर्वमान्य ग्रन्थगत सभी पदार्थों का खण्डन इसमें प्रभिप्रेत है । प्राचार्य मम्मट ने काव्यरचना-विषयक जो विस्तृत विवेचन काव्यप्रकाश में किया है, उसमें से किसी लक्षरण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन एवं किसी निरसनसम्बन्धी उल्लेख को सिद्धिचन्द्र ने ठीक नहीं माना है और इसीलिए उन्होने अपने मन्तव्य को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत रचना का निर्माण किया है। इसी प्रकार काव्यप्रकाश के पुराने और नये टीकाकारों के भी जिन विचारों के साथ इनका मतभेद हुआ है, उन विचारों का भी इसमें निरसन हुआ है। वैसे ये जगन्नाथ की भाँति 'नव्य' थे। ये एक नवीन काव्य - सिद्धान्त की स्थापना में यत्नशील थे । तथापि ऐसा करने में इनका हेतु केवल पदार्थतत्त्व की मीमांसा प्रदर्शित करने का रहा है न कि किसी प्रकार के स्वमताग्रह अथवा परदोषान्वेषण का रचना के आरम्भ में खण्डनकार ने स्वयं लिखा है
प्राह्मा: क्वापि गिरो गुरोरिह परं दूष्यं परेषां वचो— वृन्दं मन्वधियां वृथा विलपितं नास्माभिरुदृङ्कितम् । अत्र स्वीय विभावनेकविदितं यत् कल्पितं कौतुकाद्, वाविष्यूहविमोहनं कृतधियां तत्प्रीतये कल्पताम् ॥ ४ ॥ X X X X पररचित काव्यकण्टकशतखण्ड [ खण्ड ] नताण्डवं कुर्मः । कवयोऽद्य दुर्बुरूढाः स्वैरं खेलन्तु काव्यगहनेषु ॥ तावानुवादपूर्वक 'काव्यप्रकाशखण्डन' मारभ्यते
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इससे यह स्पष्ट है कि यह सब कौतुकमात्र की दृष्टि से प्रयास किया गया है।
१. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - भारतीय विद्या भवन, बम्बई से १८वें पुष्प के रूप में मुद्रित ।
( इत्यादि)