________________
Go
इसी के प्राधार पर इनका समय कमलाकर के समय १७१२ ई० से पूर्व १५५० ई० के आसपास का है। प्रस्तुत टीका के अन्य नाम 'कवि-नन्दिनी' अथवा 'नन्दिनी' भी हैं। प्रोफैक्ट १, १०२ स २, २० A तथा २. १६६B में इसका सूचन है।
[ २९ ] काव्य- कौमुदी - म० म० देवनाथ ठक्कुर 'तर्कपञ्चानन' ( सन् १५७५ ई० )
म० म० गोविन्द ठक्कुर के प्राठ पुत्रों में से देवनाथ छठे पुत्र थे । प्रधिकरणकोमुदी, स्मृतिकौमुदी और तन्त्रकौमुदी की रचना भी इन्हीं की हैं। प्रस्तुत "काव्यकौमुदी” की रचना का कारण अपने पूज्य पिताजी के द्वारा प्रणीत काव्य-प्रदीप' के सम्बन्ध में किये गये प्रक्षेपों का निवारण रहा है। काव्यकौमुदी के मङ्गलाचरण के पश्चात् इन्होंने लिखा है कि
य एष कुरुते मनो विपदि गौरवीणां गिरा, स वामन इवाम्बरे हरिणलाच्छनं वाञ्छति । लिलेखिपति सिंहिकार मरणकेसरं फेरवत्, पतङ्ग इव पावकं नृहरिमावकं धावति ।।
तथा - विन्यस्तं दूषणं येन गौरवीषु निरुक्तिषु । विन्यस्यत्यस्य शिरसि तर्कपञ्चाननः पदम् ॥
इस टीका का उल्लेख कमलाकर भट्ट तथा नरसिंह ठक्कुर ने किया है। अतः इनका स्थितिकाल सोलहवीं शती का अन्तिम चरण था । शास्त्रार्थ विचार की प्रगल्भता के कारण इन्हें 'तर्क - पञ्चानन' जैसी पदवी से सुशोभित किया गया था । इन्हीं के पुत्र महामहोपाध्याय रामानन्द ठक्कुर ने 'रसतरङ्गिणी' की रचना की थी, जो 'मिथिला संस्कृत विद्यापीठ दरभङ्गा' से प्रकाशित है ।
[ ३० ] टीका - उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी गणो (सन् १५८३ से १६८६ ई० )
गुजरात प्रदेश के पाटण शहर के निकटस्थ 'कनोडु' गाँव में 'नारायण जैन' के पुत्र 'सोभागदे' के गर्भ से उत्पन्न 'जसवंत कुमार' ही बाद में दीक्षित होकर 'उपाध्याय यशोविजय' के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनका ग्रन्थरचनाकाल ऐतिहासिक वस्त्रपट तथा इनके स्वहस्त से लिखित पाण्डुलिपियों के आधार पर सन् १५८३ से १६८६ ई. माना गया है । ये न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित तथा महाकवि थे । इनके द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी ( मिश्रित ) ग्रन्थों की संख्या बहुत विशाल है। साथ ही स्वरचित एवं अन्य विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों की टीकाएँ भी लिखी हैं । काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका केवल 'द्वितीय' एवं 'तृतीय' उल्लास पर ही उपलब्ध हुई है । टीका का कोई स्वतन्त्र नाम नहीं दिया है । मूलतः नैयायिक होने के नाते लेखक ने प्रस्तुत टीका में - 'भट्टमत, गुरुमत, प्रदीपकृत्, परमानन्द, सुबुद्धिमिश्र, मीमांसकमत, चंडीदास, वैनाशिक, वैभाषिक, मणिकार, मधुमतीकार, यशोधरोपाध्याय, पार्थसारथिमिश्र, नृसिंहमनीषाकार तथा प्रालङ्कारिकों के मतों को उद्धृत करते हुए खण्डन-मण्डन किया है। विषय प्रतिपादनशैली प्रभिनव होने के साथ-साथ नव्यन्याय शैली से पुष्ट है । यह टीका हिन्दी अनुवाद सहित मुनि श्री यशोविजयजी के प्रधान सम्पादकत्व (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी ने सम्पादित कर ) 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति बम्बई' से प्रकाशित की है । [३१] बृहट्टीका - महोपाध्याय सिद्धिचन्द्रगरि (सन् १५८८-१६६६ ई० )
प्रस्तुत टीका का उल्लेख 'काव्य - प्रकाश खण्डन' में 'यः कौमारहरः' इत्यादि पद्य में 'कतिपयाक्षरों की द्विरावृत्ति
१. भावक का तात्पर्य अवि मेषों का समुदाय ऐसा है ।