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कार' होने का सूयश अजित किया है, वहीं कात्यप्रकाश के विभिन्न टीकाकारों में 'प्रथम जैन टीकाकार' होने का गौरव भी सहज प्राप्त किया है । इनकी इस टोका ने अन्य टोकानों का द्वार खोला और टीकामार्गानुयायियों का पथ प्रशस्त किया।' इनकी अन्य रचनाएँ 'पार्श्वनाथचरित' तथा 'रत्नायन' अथवा 'कुबेरपुराण' हैं।
कतिपय विद्वानों ने 'सङ्कत' टीका के उद्धरणों और रचना-प्रक्रिया के आधार पर रुचक और रुय्यक को एक ही मानकर पहले टीकाकार रुचक, द्वितीय सोमेश्वर और ततीय माणिक्य चन्द्र यह क्रम स्वीकार किया है। इसका समर्थन सर्वाधिक रूप से सोमेश्वर के 'काव्यादर्श, काव्यप्रकाश सङ्कत' के सम्पादक श्री रसिकलाल छोटालाल परीख ने तुलना के लिए (१) रुचक और सोमेश्वर तथा (२) सोमेश्वर और माणिक्यचन्द्र के पाठांशों का क्रमिक चयन करते हए परस्पर एक-दूसरे का सम्बन्ध और ग्राह्य-ग्राहक-भाव व्यक्त किया है। उनका कथन है कि रुचक से सोमेश्वर ने पाठांश लेकर विस्तृत किए हैं और सोमेश्वर के पाठांशों से मारिणक्यचन्द्र ने अपनी टीका को समृद्ध किया है।
माणिक्यचन्द्र सरि::प्रथम टोकाकार
१. किन्तु यह चिन्तन अथवा ऐसी स्थिति संस्कृत-साहित्य में नवीन नहीं है । ऐसे अनेक ग्रन्थ और टीकाएं हैं जिनमें यही स्थिति है और उनके नामोल्लेख, कालनिर्देश प्रादि के अभाव में विचारक अनेक कल्पनाएँ करते रहे हैं। भारवि के अनुकरण पर 'शिशुपाल-वध' का कवन तो मान्य है ही, किन्तु सिंहल स्थित कुमारदास का उसी के समान उसी काल में रचित 'जानकीहरण' अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? जब कि यातायात सौविध्य नहीं था। ऐसे और भी दृष्टान्त मिल जाते हैं । अतः कालिदास की यह उक्ति-ततो गृहीतं नु मृगाङ्गनाभिस्तया गृहीतं तु मृगाङ्गनाभ्य: ?' यह कहना कठिन ही है।
२. इसके विपरीत कविशेखर बद्रीनाथ झा ने अपनी भूमिका में लिखा है कि यत्तु काश्मीरिक-राजानकतिलकसूनुना मलकस्य गुरुणाऽलङ्कारसर्वस्वकारेण रुय्यकेरणायं सङ्कत: कृत इति केनचिल्लिखितम्, तच्चिन्तनीयमेव, शब्दश्लेषनिरूपणे नवमे, शब्दालङ्कारसङ्करनिरूपरणे व्यतिरेकालङ्कार-निरूपणे च दशमे काव्यप्रकाशोल्लासे रुय्यकमतस्य मम्मटेन निराकृतत्वाद्, रुय्यकस्य मम्मटात् प्राचीनत्वात् । (गोकुलनाथोपाध्याय कृत विवरण सहित-काव्यप्रकाश, सरस्वती भवन-ग्रन्थमाला ८६ वाराणसेय सं० वि० वि०) इसके आधार पर रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती माने गये हैं ।
३. म०म० पी० वी० कारणे के 'संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ हिन्दी सं० पृ० ३४४-४५ में भी यह प्रश्न उठाया गया है किन्तु वहाँ निर्णय अपूर्ण ही है।
तथ १. रुचक और रुय्यक एक ही हैं या नहीं? इस का जयरथ की पंक्ति के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है। २. रुय्यक के पालंकारिक अंश मम्मट ने लिए हैं, अतः रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती हैं । ३. टीकांशों के संक्षेप-विस्तार तथा साम्य उपर्युक्त क्रम की अपेक्षा विपरीत क्रम से भी हो सकते हैं । ४. आलोच्य विचारों का साम्य और एक कालावच्छिन्न चिन्तन वातावरण के अनुसार होते हैं। अत: रुय्यक ने जो बात काश्मीर में रहते हुए सोची वही वैसी ही गुजरात
१. इस 'सङ्कत' टीका का प्रकाशन 'पानन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना' से १९२१ ई० में ग्रन्थाङ्क ८६ के रूप में
तथा 'मैसूरुराजकीय ग्रन्थमाला' के ग्रन्थांक ६० के रूप में १९२२ ई० में हुआ था। प्रकाशन की भूमिका ।
म०म० अभ्यङ्करशास्त्री ने लिखी है। २. 'पार्श्वनाथ चरित' में दी गई वंशावली और 'संकेत' की वंशावली में साम्य है।