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इस टीका में भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, अभिनव गुप्त, मुकुल और भोजराज के अभिप्रायों का उल्लेख हमा है तथा टीकाकार ने स्वरचित काव्य के उदाहरण भी यत्र-तत्र प्रस्तुत किए हैं। टीकाकार के दायित्वों का उचित निर्वाह करते हुए श्रीमाणिक्यचन्द्र सूरि ने जहाँ संक्षिप्त विवरण की अपेक्षा थी वहां संक्षित और जहाँ विस्तार
आवश्यक था वहाँ विभिन्न प्रमाणों द्वारा विषय को विशद करने का प्रयास किया है। इस टीका के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि
गुरणानपेक्षिरणी यस्मिन्नर्थालङ्कारतत्परा । प्रौढाऽपि जायते बुद्धिः 'सङ्केतः सोऽयमभुतः ॥१॥ नानानन्यसमुद्धतरसकलरप्येव संसूचितः, 'सङ्केतो'ऽर्थ लवर्लविष्यति नृणां शके विशङ्कतमः । निष्पन्ना ननु जीर्ण-शीर्ण-वसन!रन्ध्र-विच्छित्तिमिः, प्रालेय-प्रथितां न मन्थति कथं कन्था-व्यथां सर्वथा ॥२॥
यह टीका 'अपने और अन्य विद्वानों के लिए' निर्मित की थी। इसके सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं लिखा है कि'काव्य प्रकाश-सहकेतः स्वान्योपकृतये कृतः ॥११॥
सङ्कत में कुछ स्थलों पर जो महत्त्वपूर्ण विवेचन दर्शनीय हैं, उनमें
१. लक्षणा-सूत्र' की व्याख्या, २. 'गङ्गायां घोषः' पर शास्त्रीय चर्चा, ३. 'मुखं विकसितस्मितं' तथा 'स्निग्ध श्यामल' पद्य की व्याख्या, ४. रसप्रकरण में पाए हुए विभिन्न मतों की चर्चा, ५. रसों के विभाग आदि का निरूपण, ६. पञ्चमोल्लास. में 'श्रतिलिङ्गस्थान' प्रादि की चर्चा एवं ७. अष्टम तथा नवम उल्लास में गुणों और यमक के स्वकृत उदाहरण प्रादि ।
द्वितीय उल्लास में अपने प्रबन्ध की महत्ता में इन्होंने लिखा है किसशब्दार्थ-शरीरस्य कालङ्कार-व्यवस्थितिः। यावत् कल्याणमारिणक्य-प्रबन्धो न निरीक्ष्यते ॥
इसी प्रकार नवम उल्लास के प्रारम्भ में 'सकेत' को लोकोत्तर भी कहा है । प्रत्येक उल्लास के प्रारम्भिक पद्यों में इसी प्रकार के कुछ न कुछ भाव प्रकट किए हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ये किसी प्रकार के अभिमान से व्याप्त थे। इन्होंने अपनी नम्रता भी बड़े अच्छे शब्दों में व्यक्त की है। यथा
नोरन्ध्र विषमप्रमेयविटपि-वातावकोणे सदा, तस्मिंस्तर्कपथे यथेष्टगमना जज्ञे यदीया मतिः ॥८॥ यस्मात् प्राप्य पृथुप्रसाद-विशवा विद्योपदेशात्मिका, पत्री मुक्तिकरीमतीव जडता-वस्त्वन्विता मन्मतिः । विक्षिप्य भ्रमशोल्किकात् कलयतो लब्धाश्रयं मानसे,
मेध्ये वाङ्मय-पत्तनं प्रविशति द्वारि स्थिता तत्क्षरणात् ॥६॥ मदमदनतुषारक्षेपपूषा विभूषा, जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरीयाः ।
युमुखमखिलतर्कग्रन्थपङ्क रुहारणां, तदनु समजनि श्रीसागरेन्दुर्मुनीन्द्रः ।। १० ॥ १. इस पद्य में नानापन्थ-समुपति' वाले अंश को देखकर डॉ. सत्यव्रत सिंह (हिन्दी 'शशिकला के व्याख्यानकार) ने
उपोद्घात' (पृ. २) में यह लिखा है कि टीका के रचयिता की उक्ति इस बात का संकेत करती है कि सम्भवत: इस टीका के पहले भी काव्यप्रकाश-सम्बन्धी कुछ साहित्य रचा जा चुका था।' किन्तु यह तर्कसङ्गत नहीं है क्यों कि इससे ऐसा कोई भाव प्रकट नहीं होता।