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[१] 'सङ्कत' प्राचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि ( सन् १११५ ई० जन्मकाल)
काव्य प्रकाश वो अब तक उपलब्ध टीकानों में माणिक्य चन्द्र सूरि द्वारा रचित 'सङ्केत' टीका अति प्राचीन है। इस टीका में अन्य किसी टीकाकार का उल्लेख न होने से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। इसकी रचना का समय स्वयं टीकाकार ने
रस वक्त्र-१२ग्रहाधीशवत्सरे मासि माषवे । काव्ये काव्य-प्रकाशस्य सङ्केतोऽयं सथितः ॥ १२॥'
यह लिखकर व्यक्त किया है। इसके अनुसार इस टीका की समाप्ति का समय सन् १९५६ ई० है। किन्तु इस सम्बन्ध में 'वक्त्र' शब्द के अर्थभेद को ध्यान में रखकर कुछ विद्वान् वि० सं० १२४६ और १२६६ भी मानते हैं। श्रीमाणिक्य चन्द्र सूरि 'राज' गच्छ के सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे। रचनागत प्रौढ़ता को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि उस समय इनकी आयु प्रायः ४०-४५ वर्ष की अवश्य रही होगी अतः इनका समय १११५ ई. मानना उचित है। इन्होंने टीका के अन्त में दी गई 'पुष्पिका' के पद्यों में श्रीशीलभद्र, भरतेश्वर सूरि, वेरस्वामी और नेमिचन्द्र सूरि का वर्णन करते हुए अपने परमगुरुओं का उल्लेख किया है तथा अपने मतिवैभव की उपलब्धि में. . श्रीनेमिचन्द्र और सागरचन्द्र सूरि का बहुत बड़ा योग व्यक्त किया है।
१. काव्य-प्रकाश-सङ्केत टीका का अन्तिम पद्य । २. डॉ० सांडेसरा (गायकवाड़ ओरियण्टल इन्स्टीटयूट-बड़ौदा के क्यूरेटर) ने अपने प्रबन्ध-Literary Cirele of Mahamatya vastupala' में वक्त्र' शब्द के ब्रह्मा से सम्बद्ध होने पर ४ तथा 'गुह' से सम्बद्ध होने पर ६ की संख्या के रूप में अर्थ मानकर वस्तुपाल के समय के साथ माणिक्यचन्द्र सूरि के स्थितिकाल का साम्य दिखाया है। किन्तु प्रो. रसिकलाल सी० परीख ने अपनी सोमेश्वरकृत काव्य-प्रकाश की संकेत टीकासम्बन्धी प्रकाशन की प्रस्तावना में इसे उचित नहीं माना है । द्रष्टव्य-काव्यप्रकाश (द्वितीय भाग), राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (प्रकाशन १९५६ ई० ।
३. श्रीशीलभद्रसूरीणां पट्ट मारिणक्यसन्निभाः। परम ज्योतिषो जाता भरतेश्वरसूरयः ॥ ३ ॥
भरतेन परित्यक्तोऽस्मीति कोपं वहन्निव । शान्तो रसस्तदधिकं भेजे श्रीमरतेश्वरम् ॥४॥ पवं तन्वलञ्चके वेरस्वामिमुनीश्वरः। अनुप्रद्योतनोद्योतं दिवमिन्दुमरीचिवतु ॥५॥
वाञ्छन् सिद्धिवधू हसन सितरुचि कोा रति रोदयन्, पञ्चेषोर्मथनाद् वहन भववनं कामन् कषायद्विषः । त्रस्यन् रागमलङ्घनाघनशकृद्भस्त्रास्त्यजन योषितो, बिभ्राणः शममद्भुतं नवरसी यस्तुल्यमस्फोरयत् ॥ ६ ॥
षतर्को-ललना-विलास-वसतिः स्फूर्जत्तपोहर्पतिस्तत्पट्टोदयचन्द्रमा: समजनि श्रीनेमिचन्द्रप्रभुः । निःसामान्यगुणभुवि प्रसृमरैः प्रालेयर्शलोज्ज्वलयश्चक्रे करणभोजिनो मुनिपतेय॑थं मतं सर्वतः ॥ ७॥ यत्र प्रातिमशालिनामपि नृणां सञ्चारमातन्वतां, सन्देहै। प्रतिभा-किरीट-पटली सद्यः समुत्तार्यते ।