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रचना है । यह ग्रन्य अमरचन्द्र की 'काव्यकल्पलता' को ही आदर्श मानार अनुकृति के रूप में लिखा गया है। यही कारण है कि इसमें अनेक नियम, लक्षण और उदाहरण काव्यकल्पलता से यथावद् गृहीत हैं।
इसमें-(१) छन्दोभ्यास, (२) सामान्य शब्द, (३) वर्ण्यस्थिति और, (४) अनुप्रास सिद्धि (?) नामक चार कुसुमों में क्रमश: ३४, ७८, ५६ और ३८ पद्यों से प्रथम स्तबक पूर्ण किया है। द्वितीय स्तबक (१) उद्दिष्ट वर्णन (२) वर्ण-वर्णन, (३) ?, (४) संख्या नाम एवं (५) मिश्र ऐसे पाँच कुसुमों में क्रमश: ४ पद्य एवं गद्य, १८ पद्य एवं गद्य, २७ पद्य एवं गद्य २७ तथा १८ पद्यों द्वारा पूर्ण किया है । तृतीय स्तबक (१) राजदर्शन, (२) गंगास्तुति, (३) भगवदीरण, (४) ब्राह्मण-सम्भाषण, (५) तडागादि वर्णन और (६) वादितर्जन नामक छह कुसुमों में पूर्ण हुमा है। इन कुसुमों में प्रायः गद्य का ही प्रयोग हुआ है और इस पूरे स्तबक का 'कथास्तबक' नाम भी दिया है। चौथा स्तबक (१) अर्थोत्पादन, (२) अद्भुत, (३) चित्र, (५) रूपकादिक, (५) [2] (६)समस्यापूरणोपाय और (७)समस्या नामक सात कुसुमों से पूर्ण हुआ है। विभिन्न उदाहरणों का इनमें प्रकीर्ण रूप से सकलन किया गया है। इस ग्रन्थ की ५ टीकाएँ निम्नलिखित हैं
(१) स्वोपज्ञटोका—यह स्वयं देवेश्वर ने लिखी हैं। (२) टीका--श्रीबेचाराम सार्वभौम । (हिन्दू कामेंटेटर' खण्ड-३ में बनारस से प्रका०) (३) टीका-श्रीरामगोपाल कविरत्न । (४) बालबोधिका-श्रीसूर्यकवि (१६वीं शती का पूर्वार्ध) रामकृष्णविलोमकाव्य के कर्ता (५) विवेक-(अज्ञातकर्तृक) कलकत्ता संस्कृत कालेज (scc) कैटलाग vii, 8.
इनके अतिरिक्त महादेव की 'पदार्थ द्योतनिका' तथा शरच्चन्द्र शास्त्री आदि को और भी कुछ टीकाएँ इस पर निर्मित हैं । इसका प्रकाशन लालभाई दलपन भाई संस्कृत विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से हुअा है ।
इस प्रकार उपर्युक्त कविशिक्षायों के पर्यायलोचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'काव्य-मीमांसा' के क्षेत्र में राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' से लगभग २०५ वर्ष पूर्व ही जैनाचार्य बप्पभट्टि सूरि ने इस विषय का सूत्रपात कर दिया था और उनकी 'कविशिक्षा' उस समय उनके लिये प्रेरणा-प्रद रही होगी जो कि आज अनुपलब्ध है। साथ ही यह भी निश्चित है कि इस दिशा में जैनाचार्यों के प्रयास ही अधिक रहे हैं क्योंकि अन्य प्राचार्यों में रुय्यक की 'साहित्यमीमांसा, क्षेमेन्द्र का कविकण्ठाभरण, अनन्तार्य का कविसमयकल्लोल और किसी अज्ञात लेखक का कविकण्ठहार' आदि इस तरह के ग्रन्थ कुछ ही बने हैं।
[२-अलङ्कार-ग्रन्थ और ग्रन्थकार ]
१-वाग्मटालङ्कार-महाराजा सिद्धराज के समकालीन एवं उनके द्वारा सम्मानित विद्वान् वाग्मट सन् १९३३ ई. के लगभग (प्राकृत नाम बाहड) प्रथम की यह कृति है। वाग्भट के पिता का नाम सोम था और ये सिद्धराज के महामन्त्री थे । इस ग्रन्थ के पांच परिच्छेदों में प्राय: २६० पद्य हैं। प्रत्येक परिच्छेद का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द में है जवकि अन्यत्र अनुष्टुप् का ही प्रयोग हुआ है । तीसरे परिच्छेद में प्रोजोगुण का वर्णन गद्य में किया गया है। वेबर की वलिन पाण्डुलिपि संख्या १७१८ में एक छठा अध्याय भी है जिस में यमक अलकार का विवेचन है।