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जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ वैसे तो काव्यशास्त्र के ग्रन्थों की श्रृंखला में सभी प्राचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का समावेश हो जाता है, उसमें किसी सम्प्रदाय विशेष का स्वतन्त्र निर्देश अपेक्षित नहीं होता। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्यतम टीकाकार श्रीमद्यशोविजयजी महाराज की काव्यशास्त्रीय सेवा के सन्दर्भ में उनसे सम्बद्ध जैन-विद्वानों-प्राचार्यों की सेवा का स्वतन्त्र रूप से निदर्शन यहाँ उपयुक्त प्रतीत होता है। साथ ही इस प्रकार के निदर्शन से एक पूरी परम्परा का चित्र भी हमारे समक्ष उपस्थित हो सकेगा। इस दृष्टि से हम 'जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय, प्रस्तुत कर
ऐतिहासिक पर्यालोचन
भगवान महावीर स्वामी के जन्म से पूर्व भी किसी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण स्वतन्त्र रूप से हुआ होगा किन्तु आज उसका कोई प्रमाण हमें प्राप्त नहीं होता है। अधिक से अधिक विक्रम की नौंवी शती के प्रारम्भ से लाक्षणिक साहित्य के ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है। सर्वप्रथम जैन लेखक बप्पभट्रि सरि हैं । काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों की टीका का प्रारम्भ वैक्रमीय बारहवीं शती का पूर्वकाल है और प्रथम टीकाकार श्री नमिसाधु हैं। इसी काल में रामचन्द्र गुरणचन्द्र ने 'नाटचदपण' की रचना से एक पृथक महत्त्वपूर्ण कृति प्रस्तुत की है। प्राचार्य हेमचन्द्र का काव्यानुशासन तथा नरेन्द्रप्रभसूरि का 'अलंकार-महोदधि' ये दो ग्रन्थ इस परम्परा में स्वोज्ञवृत्तियों से समन्वित हैं और क्रमश: गद्य एवं पद्यमय कृतियों में अन्यापेक्षा से विशाल हैं। काव्याङ्ग में समाविष्ट छन्दःशास्त्र की रचना का प्रारम्भ इन सब से पूर्व विक्रम की छठी शती में ही इस परम्परा में हो गया था। सर्वप्रथम कृति 'छन्दःशास्त्र' है जो दिगम्बर जैन प्राचार्य 'पूज्यपाद' द्वारा रचित है। यह परम्परा विक्रम की अठारहवीं शती तक अच्छी विकसित हुई तथा कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ हमारे समक्ष प्राये।
आगमों में बहधा ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनमें काव्यशास्त्रीय अलङ्कार और रस का स्वरूप हमें उपलब्ध होता है। उपमा, अर्थान्तरन्यास, श्रृंखला-यमक प्रादि से अलङ्कृत स्थल सहज ही मिल जाते हैं किन्तु टीकाओं में इसकी कोई लाक्षणिक विवेचना उस काल में हुई हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है । जैनाचार्यों द्वारा किये गये काव्यशास्त्रीय-चिन्तन के प्रकार
यह स्वाभाविक है कि वैराग्यपथ के पथिक को अन्यान्य शास्त्रों के चिन्तन की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती है।
१-'अनुयोगद्वार-सूत्र' में "रिणदोसं सारमंत च, हेउजुत्तमलंकियं" इत्यादि पाठ मिलता है ।
२-विक्रम की दूसरी-तीसरी शती में जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्र ने अपनी रचना 'स्तुतिविद्या' में अनेकविध चित्रालद्वारों का प्रयोग किया है, जो लक्ष्य के रूप में है।
३-वैसे जैन विद्वानों ने अलंकार-ग्रन्थों की रचना पहले प्राकृतभाषा में की है। जैसलमेर-भण्डार की ग्रन्थसूची में सं० ११६१ पर प्राकृतभाषा में रचित 'मलकार-दापरण' का नाम मिलता है। किन्तु यह अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है।