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मेरे प्रति प्रात्मीय श्रद्धा रखते थे। ऐसे उन पुण्यात्मा के पास प्रायः बीस वर्ष पूर्व मुझे रहने का अवसर मिला तब उपाध्यायजी से सम्बन्धित जो कुछ सामग्री उनके पास थी वह मुझे देना प्रारम्भ की। उसमें उन्होंने स्वहस्त से लिखित काव्यप्रकाश की प्रेसकॉपी भी बड़े उत्साह और उदारता से मुझे प्रदान की। उस कॉपी के मोती के समान सुन्दर अक्षर सुस्पष्ट और सुन्दर मरोड़वाली एक सर्वमान्य कृति की प्रेसकॉपी को देखकर मैंने अपार आनन्द का अनुभव किया। मुझे लगा कि अन्य महत्त्व के अनेक कार्यों के रहते हुए भी उनकी श्रुतभक्ति की कैसी लगन और उपाध्यायजी के प्रति कैसी अनन्य निष्ठा थी कि उन्होंने समय निकाल कर (क्लिष्ट हस्तप्रति के आधार से) स्वयं प्रेसकॉपी की। उनके द्वारा की हुई प्रेसकॉपी अर्थात् सर्वाङ्ग सुव्यवस्थित प्रतिलिपि के दर्शन। (उनके द्वारा लिखित प्रेसकॉपी का फोटो ब्लॉक इस ग्रन्थ में छपा है उसे देखें।)
वर्षों के पश्चात् इस कॉपी का कार्य हाथ में लिया और हमारे अर्थात् 'श्रीमुक्तिकमल जैन मोहनमाला' और अन्य भण्डार की, इस तरह दो भण्डारों की, दो पाण्डुलिपियाँ मँगवाई, अन्यत्र इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं थी । ये दोनों प्रतियाँ प्रायः अशुद्ध और पाठों से खण्डित थीं। इतना होते हुए भी दोनों पाण्डुलिपियाँ कहीं कहीं एक दूसरे की पूरक हों ऐसी होने से ये प्रेस कॉपी के साथ मिलाने में यत्र-तत्र सहायक हुई और तदनन्तर उनके आधार से पूर्णतः नयी ही प्रेसकॉपो तैयार करवाई गई। उपाध्यायजी के स्वहस्ताक्षर की उपलब्ध प्रति
यह प्रेसकॉपी तैयार होने के बाद अहमदाबाद के भण्डार से पुण्यात्मा मुनिप्रवर श्रीपुण्यविजय जी महाराज को स्वयं उपाध्यायजी के हाथ की लिखी हुई एक प्रति मिल गई । उन्होंने मुझे तत्काल शुभ समाचार भेजे और मेरे लिये शीघ्र ही उसकी फोटोस्टेट कापी निकलवाकर मुझे भेज दी। मैंने उस प्रतिलिपि को देखकर भावपूर्ण नमन किया। मेरे प्रानन्द का पार नहीं रहा। बिना किसी प्रकार के मिटानेबिगाड़ने आदि के चिह्न के सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई प्रति देखना यह भी एक प्रकार का लाभ ही है।
यह पाण्डुलिपि मिल जाने पर पहले तैयार की गई प्रेसकॉपी के साथ मैंने उसका मिलान किया और खण्डित पाठों को पूर्ण किया। परिश्रम तो पर्याप्त हुआ किन्तु अशुद्ध पाठ शुद्ध हो गये। इससे मेरा भार हलका हुआ और परिणामस्वरूप मुझे पूर्ण सन्तोष हुआ कि अब यह कृति पूर्णरूपेण शुद्ध पाठ के रूप में दे सकंगा।
वर्षों तक यह प्रेसकॉपी मेरे पास पड़ी रही। अन्य कार्य चलते थे, अतः इसे रखे रहा। काव्यप्रकाश के प्राद्य टीकाकार कौन थे?
काव्यप्रकाश की रचना ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में हुई और उसके पश्चात् इस ग्रन्थ के यथार्थ अर्थ का ज्ञान कराने के लिये सर्वप्रथम टीका बनाने का गौरव एक जैनाचार्य को ही प्राप्त हुआ। यह घटना भी जैनसमाज के लिये गौरवास्पद बनी।
इन प्राचार्य श्री का नाम था माणिक्यचन्द्रजी । इससे वे सबसे प्राचीन टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हए । इन्होंने टीका का नाम 'सङ्केत' रखा तथा इसकी रचना १०१६ (ई. सन् ११६०) में हुई। इसके पश्चात् प्रायः साढ़े पांच सौ वर्ष बीत जाने पर १७-१८वीं शताब्दी में उपाध्यायजी द्वारा नव्यन्याय की पद्धति को माध्यम बनाकर केवल दो उल्लासों पर की गई यह टीका आज प्रकाशित हो रही है।
इस ग्रन्थ की टीका विद्यार्थी जगत् में अधिक उपादेय बने इसके लिये इसका भाषान्तर करवाना