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परिज्ञान की ललक बढ़ती गई। इसी प्रसंग में दो बातें विचारणीय बनीं जो १- काव्य- शरीर-विज्ञान और २ काव्य शरीर रचना-विज्ञानरूप हैं । प्रथम विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करते हुए 'शब्दार्थ, रीति, गुण, अलङ्कार, ध्वनि, रस' आदि का विवेचन अपेक्षित हुआ और द्वितीय विज्ञान के आधार पर काव्य के आन्तरिक तत्त्व काव्य-सत्य का विचार उपयोगी माना गया जिसमें शरीर को सचेतन रखने की प्रक्रिया का अध्ययन भी प्रमुख था । इस तरह काव्य के शिल्प-विधान और अभिव्यञ्जना प्रकार को पृथक्-पृथक् दृष्टि से देखते हुए प्राचार्यों ने जो विचार उपस्थापित किए वे ही 'शास्त्र' का रूप लेकर मार्गदर्शक बने । ऐसे काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की विचारणा विदग्धगोष्ठियों में प्रायः होती रहती थी और काव्य के सिद्धान्तों का जब शास्त्रीय निरूपण प्रौढता की ओर अग्रसर हुआ तो साहित्य - विद्या को भी श्रान्वीक्षिकी (आत्मविद्या), त्रयी, वार्ता और दण्डनीति के साथ पाँचवी विद्या' का स्थान मिला। कवि के श्रम का मूल्याङ्कन करने के लिए कुछ मानदण्ड स्थापित हुए जो कवित्व की कृशता होने पर भी उसके कृतश्रम होनेपर विदग्धगोष्ठी में विहरण की क्षमता प्रकट करते थे । इसके अतिरिक्त श्रुतियों में वारणी के प्रयोग तथा अर्थज्ञान- पूर्वक प्रयोग" के लिए दिए गए तत्त्व भी इस दिशा में प्रेरक हुए । सम्भवतः इन्हीं कारणों ने 'काव्यशास्त्र' के निर्माण की प्रेरणा दी होगी ? महाकवि कालिदास ने भी काव्य-रचना के गुण-दोष विवेचन का संकेत करते हुए कहा है कि
तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः । हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नी विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा ॥
१. 'पञ्चमी साहित्यविद्या' इति यायावर: । सा हि चतसृणामपि विद्यानां निस्यन्दः ।
२. शब्दानां विविनक्ति गुम्फनविधीनामोदते सूक्तिभि:, सान्द्र लेढि रसामृतं विचिनुते तात्पर्यमुद्रां च यः । पुण्यः सङ्घटते विवेक्तृविरहादन्तर्मुखं ताम्पति, केषामेव कदाचिदेव सुधियां काव्यश्रमज्ञो जनः ॥
३. कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमा विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते ।
४: सतुमिव तितंउना पुनन्तो॒ यत्र॒ षीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मप्र॑त । घना 'सखा॑यः स॒ख्यानि जानते भद्वेषां लक्ष्मीनिहिताधिवाचि ॥
- काव्यमीमांसा पृष्ठ १०
६. रघुवंश महाकाव्य, सर्ग १ श्लोक १० ।
-बहीं, पृ० ३४
- काव्यादर्श, १।१०५ ॥
- ऋग्वेद ८ श्रष्ट. २ प्र. २३ वर्ग
५. (क) उ॒तवः॒ पश्य॒ नव॑व॒शं वाच॑मु॒त स्वः शृण्वन् न श्रृंगोत्येनाम् । उ॒तो व॑स्मै॑ त॒न्वँ १ विस॑त्र जा॒येव॒ पत्य॑ऽउश॒ती सुवासाः ॥ वहीं ॥
(ख) स्थाणुरयं पुरुषः किलाभूदधीत्य यो विजानाति नार्थम् ।
योऽथंज्ञ इत्सकलं भद्रमनुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा ||
- निरुक्त १।१८ |