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श्रमण अग्रणी : ऋषभदेव
14. दिग्वास
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विष्णुपुराण ( 5 / 10) में जैन श्रमण के लिए यह शब्द प्रयुक्त
हैं- "दिग्वाससामयं धर्मः ।"
15. नग्न - जैन श्रमण यथाजातरूप होते हैं अतः वे नग्न भी कहलाते हैं । आ. कुन्दकुन्द इस शब्द का प्रयोग निम्न रुप से किया है ।
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भावेण होई णग्गो, वाहिर लिंगेण किं च णग्गेणं 28
· वराहमिहिर कहते है-"नग्नान् जिनानां विदुः 29
16. निर्ग्रन्थ - अर्न्तवाहय सर्वथा परिग्रह से रहित होने के कारण जैन श्रमण इस नाम से भी जाने जाते हैं। मूलाचार में "णिभूसण णिग्गंथ अच्चेलक्कं जगदि पूज्ज 30 भद्रबाहु चरित्र में - "निर्ग्रन्थ मार्गमृत्सृज्य - सग्रन्थत्वेन ये जड़ा ( श्लोक 95 ) इसी प्रकार "अहो निर्ग्रन्थता शून्यं किमिदं नौतनं मतम् ।" (श्लोक 145 ) आदि नाम उल्लिखित है। इसी तरह णिच्चेल, निरागार, पाणिपात्र, भिक्षुक, महाव्रती, मुनि, माहण, यति, योगी, वातवसन, विवसन, संयमी, स्थविर, साधु, सन्यस्त, श्रमण और आदि नामान्तर जैन श्रमण के प्राप्त हैं।
क्षपणक
श्रमण अग्रणी : ऋषभदेव
जैन दार्शनिकों एवं इतिहासज्ञों ने श्रमण विचार धारा के आद्य सूत्रधार के रुप में आद्य तीर्थंकर आदिनाथ को ही स्वीकृत किया, एवं अद्यावधि इस वैचारिक श्रृंखला के प्रेरक एवं समर्थक अन्य 23 तीर्थंकर रहे, जिनमें कि अन्तिम तीर्थंकर महावीर को इस विचारधारा का वर्तमान काल के प्रभावक के रुप में स्मरण किया जाता है ।
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जैन दर्शन ने एक वृहत्तर युग ( कल्प काल ) को 6 भागों में विभाजित किया है। इनके आदि के तीन कालों में भोगभूमि रहती है तथा चतुर्थ भाग में भोगभूमि का क्षय हो जाता है और तब एक युग पुरुष का जन्म होता है और वही असि-मसि, कृषि आदि जीवन वृत्तियों का उपदेश देता है, तथा वहीं से नरक - मोक्ष के प्रति लोगों की प्रवृत्ति भी होती है । इस चतुर्थ काल में एक सम्राट ऋषभदेव का जन्म हुआ, 83 लाख वर्ष पूर्व तक के शासन के उपरान्त उन्होंने श्रमण दीक्षा ली । "उस काल में यह प्रथम दीक्षा थी । वे पूर्ण दिगम्बर हो गये। न तो उन्होंने तन ढकने को कपड़ा रखा और न ही अन्य प्रकार का परिग्रह । दिशाएं ही उनका परिधान थी। उस समय मुनिधर्म के सम्बन्ध में लोगों को किंचित भी ज्ञान नहीं था, फिर भी ऋषभदेव के साथ ही अपनी स्वामिभक्ति बतलाने के लिए 4000 राजाओं ने भी दीक्षा ले ली। वे भी उन्हीं के साथ नग्न हो गये।"31 चूंकि "ऋषभदेव जिनकल्पी साधु थे अतएव अकेले रहते हुए आत्मचिन्तन में लगे रहते थे । " 32 सह- दीक्षित राजाओं मुनिधर्म के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं था, अतः ऋषभदेव की दीक्षा ही उस समय की प्रथम जिनदीक्षा ( श्रमण ) थी ।