________________
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
स्वाध्याय के सन्दर्भ में ये प्रश्न कि कब, किस प्रकार, प्रारम्भ और समाप्त करना चाहिए ? स्वाध्याय के प्रतिष्ठापन और निष्ठापन की विधि में कहा है कि, प्रभातकाल से दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर जब तीसरी घड़ी लगे तो स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए, और मध्याह्न काल से दो घड़ी पूर्व समाप्त करना चाहिए। इसी तरह मध्याह्नकाल से दो घड़ी बीतने पर स्वाध्याय प्रारम्भ करे और दिन का अन्त होने में दो घड़ी शेष रहने पर समाप्त करे । प्रदोष से दो घड़ी बीतने पर प्रारम्भ करने और अर्द्ध-रात्रि में दो घड़ी शेष रहने पर समाप्त करे । तथा आधी रात से दो घड़ी बीतने पर स्वाध्याय प्रारम्भ करे और रात्रि बीतने में दो घड़ी शेष रहने पर समाप्त कर दें। इस तरह स्वाध्याय के चार काल कहे। जो कि गौसर्गिक, आपरान्हिक प्रादोषिक, और वैरात्रिक अथवा इन्हें पौर्वान्हिक, अपरान्हिक, पूर्वरात्रिक, और अपररात्रिक नामों से भी जाना जाता है । निद्रा समाप्त कर उठने के बाद सबसे प्रथम अपररात्रिक स्वाध्याय का विधान है। साधु लघु- श्रुतभक्ति और लघु-आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय की प्रतिष्ठापना करते हैं, पुनः स्वाध्याय करके लघुश्रुतभक्ति के द्वारा निष्ठापन कर देते हैं।
200
सूत्रादि ग्रन्थों का स्वाध्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक यथोचित - काल में किया जाता है। यह स्वाध्याय वाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के. द्वारा किया जाता है जो कि श्रुतज्ञान का ज्ञानाचार है ।
अपने शरीर में ज्वर, आदि कोई शारीरिक विकार हो, ऐसी स्थिति में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
3. कालशुद्धि -
2. क्षेत्रशुद्धि - व्याख्यान स्थान से चारों दिशाओं में मांस, हड्डी, रुधिर आदि पदार्थ कम से कम बत्तीस धनुष दूर होना चाहिए। कोई पंचेन्द्रिय जीव पीड़ा से दुखी हो, जीवों का घात हो रहा हो, वन में आग, धुंआ आदि उठ रहा हो तो वाचना/स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अर्हंत, आचार्य, उपाध्याय आदि आराध्य जनों का आगमन हो, एक योजन के अन्दर सन्यास धारण करने वाले का महान् उपवास हो, तथा आचार्य का स्वर्गवास अपने ही गाँव में हो तो सात दिन तक, यदि चार कोश के भीतर हो तो तीन दिन तक, और यदि किसी दूर क्षेत्र में हो तो एक दिन तक वाचना/स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । यश, पूजा, पुरस्कार वा पारितोषिक की इच्छा न रखते हुए अहंकार रहित और श्रुतज्ञान रूपी अमृत के आनन्द में मग्न बुद्धि का होना शुद्ध है।
4. भावशुद्धि -
1. द्रव्यशुद्धि -
उपर्युक्त चार प्रकार की शुद्धियों पूर्वक "पर्यकासन से बैठकर पिच्छिका के द्वारा ग्रन्थ, भूमि आदि का प्रतिलेखन करके पिच्छिका सहित अंजलि जोडकर प्रणाम करके सूत्र और